“माँ “
कहते ही
याद आता
एक हँसता-मुस्कुराता चहेरा
तपते हदृय पर,
बादल बन,बरस जाता
हर समस्या का समाधान
होता माँ के पास
न जाने कैसे
वो सब ये करती
सुबह जल्दी उठती
सबकी पसन्दीदा
वस्तुएँ बनाती
सखी बन
मुझसे बतियाती
दुआएँ देती
प्रार्थना करती
ममता लुटाती
सर्वस्व वार देती
माँ
आज हमारे बीच
न होकर भी
कहीं आस-पास ही है
जैसे
सूरज से किरण
पेड़ से छाया
जल से तरंग
अलग नहीं होती
वैसे माँ हर पल
मेरे पास ही है
आज माँ के दिए संस्कार ही
मेरा पथ-प्रदर्शन करते
“माँ ! तुझे सलाम ”
डॉ.प्रीत अरोड़ा
कहते ही
याद आता
एक हँसता-मुस्कुराता चहेरा
तपते हदृय पर,
बादल बन,बरस जाता
हर समस्या का समाधान
होता माँ के पास
न जाने कैसे
वो सब ये करती
सुबह जल्दी उठती
सबकी पसन्दीदा
वस्तुएँ बनाती
सखी बन
मुझसे बतियाती
दुआएँ देती
प्रार्थना करती
ममता लुटाती
सर्वस्व वार देती
माँ
आज हमारे बीच
न होकर भी
कहीं आस-पास ही है
जैसे
सूरज से किरण
पेड़ से छाया
जल से तरंग
अलग नहीं होती
वैसे माँ हर पल
मेरे पास ही है
आज माँ के दिए संस्कार ही
मेरा पथ-प्रदर्शन करते
“माँ ! तुझे सलाम ”
डॉ.प्रीत अरोड़ा
bahut sundar BEHATAREEN hai
ReplyDeleteमां! जिसकी नहीं हॆ कोई भी उपमा.सुन्दर रचना.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...
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