Tuesday, 26 April 2011

बाल-अपराधी

बाल -अपराधी

रात-दिन पेट भरने का सवाल
माँ की दवाई का कर्ज
पिता का मर्ज
ले आता उसे चिलमिलाती धूप में
मजबूरी में
मजदूरी में

नन्हे -हाथों से टूटते सपने
बिखरती मन की आशाएँ
काम पर ठेकेदार का रौब
घर में भुख-मरी का खौफ
पिता की फटकार से
माँ के दुलार से हर रोज

अपने मासूम कंधों पर
डाल लेता बोझ
भावहीन चहेरे में
जाने कहाँ छिप जाती मासूमियत

परिस्थितियों के वार से
जीवन की हार से
या ज़रूरतों की आँधी में
बन गया बाल-अपराधी
सोचा पकड़ा जाऊँगा तो जेल में
दाल-रोटी तो मुफ्त खाऊँगा

पर हाय रे तकदीर ऐसी
यहाँ भी दगा दे गयी
चोरी कर पकड़ा गया
जंजीरों में जकड़ा गया
पुलिस ने की पिटाई
देने लगा दुहाई

गरीबी का एहसास
बन गया उसके जीवन का अभिशाप

1 comment:

  1. बहुत ही गहरे भाव लिए हुए यह कविता ....
    बाल अपराधी !
    गरीबी भी एक अभिशाप ही तो है ...
    जिस आयु में बच्चों को खेलने व खाने के सिवा और कुछ याद नहीं होता तब गरीबी काम करवाती है !
    अच्छी रचना के लिए बधाई !

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