Tuesday, 19 April 2011

आज का इंसान



















हारना मैंने सीखा नहीं है 

जीतना मेरा लक्ष्य
यही सोच और पैसों की लम्बी दौड़
मैं रहूँ सबसे आगे मानव में लगी हौड़
सतरंगी सपनों मे उलझा वो ऐसा
धर्म-कर्म सब कुछ है पैसा
धन-सम्पदा, मान-मर्यादा, ऊँची आन और शान
मृग-तृष्णा ने ऐसा फाँसा, भूला भले-बुरे का ज्ञान
काला-धन और चोरबाजारी
हाय-रे गयी मति-मारी
चार-दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात
टूट गया, इक सुन्दर सपना, बिगड़ी सारी बात
काश, न उड़ता आसमान में
खुद की कर लेता पहचान
पश्चाताप के आँसू पीता
खो गया आदर-सम्मान
यही है आज का इंसान
यही है आज का इंसान
प्रीत अरोरा 

2 comments:

  1. खुद की कर लेता पहचान
    पश्चाताप के आँसू पीता
    खो गया आदर-सम्मान
    यही है आज का इंसान
    यही है आज का इंसान
    bahut sender likha hai
    likhti raho

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  2. जीवन की सच्चाई ब्यान करती है यह कविता
    खुद की कर लेता पहचान
    पश्चाताप के आँसू पीता
    खो गया आदर-सम्मान
    यही है आज का इंसान
    बहुत बड़ी बात कही है इस कविता में ...
    काश हम अपने आपको पहचान पाते !
    हरदीप

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