Monday, 23 April 2012

             ‘अभिशप्त – एक पुनर्पाठ '
डा. प्रीत अरोड़ा

तेजेन्द्र शर्मा एक ऐसे कहानीकार हैं जो जनमानस से विविध पात्रों को लेकर उनके दुख-दर्द ,उनकी आन्तरिक व मार्मिक दशा को पाठकों के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि चाहे वह पात्र काल्पनिक ही क्यों न हो वह सजीव हो उठते हैं और वह पात्र पाठक-वर्ग के मानस-पटल पर जीवंत होकर उन्हें भावाविभोर कर देते हैं l
तेजेंद्र जी की मर्मस्पर्शी कहानियों में से 'अभिशप्त ' कहानी एक अद्वितीय व अनूठी कहानी है, जिसमें उन्होंने एक मध्यवर्गीय परिवार से सम्बन्ध रखने वाले रजनीकांत के जीवन को यथार्थ के धरातल पर सहजता से प्रस्तुत किया है l कहानी में गुजराती माध्यम से बी..पास रजनीकांत नौकरी न मिलने और घर में व्याप्त गरीबी के कारण लंदन में जा बसता है l उसे लंदन ले जाने का ज़रिया बनती है उसके गाँव की दूर की बहन जो खुद भी लंदन में ही रहती है l यद्यपि रजनीकांत के पिता उसका जीवन सँवारने के लिए ही उसे बी.. करवाते हैं तथापि रजनीकांत को नौकरी नहीं मिलती l रजनीकांत अविवाहित भी है l किसी तरह बहन के कहने पर रजनीकांत के पिता उसे  लंदन भेजने के लिए राजी हो जाते हैं l रजनीकांत अपने ही गाँव की लड़की स्नेहा से प्रेम करता था और उससे विवाह करना चाहता था परन्तु बहन और अपने पिता की लंदन भेजने की बात सुनकर सोचने लगता है, “क्या स्नेहा के प्रेम को अभी से भूलना होगा ? यदि विवाह किसी और से होना है तो क्या स्नेहा से प्रेम करना उचित होगा ?क्या विवाह प्रेम की कसौटी है ?” आखिर स्नेहा को छोड़कर और अपने आँखों में सपने लिए रजनीकांत लंदन पहुँच ही जाता हैl” 
लंदन के हवाई अड़्डे पर उतरने पर वहाँ  की सुंदरता देखकर रजनीकांत मोहित हो जाता है l अपनी बहन और जीजा की बड़ी-सी कार को देखकर मन-ही-मन ख्याली पुलाव बनाने लगता है कि उसकी भी अपनी ऐसी बड़ी-सी कार होगी l लंदन में पहले तो रजनीकांत अपने बहन और जीजा के घर का काम  करने को मजबूर हो जाता है l वह अपनी भावनाओं को अंदर ही अंदर दबाता चला जाता है,"बंधुआ मजदूरों की सिर्फ कहानियाँ सुना करता था रजनीकांत.......बी..पास,सात समुद्र पर,इतनी दूर,अपनी दूर की बहन के घर मुंडू बन गया था......मुंडू l” लंदन में रहकर भी स्नेहा की याद रजनीकांत के मन में हर पल ताजा रहती l आँखें बन्द करने पर गोरी-सी स्नेहा का चेहरा रजनीकांत की आँखों के सामने उतर आता l चाहे वह शारीरिक रूप से लंदन में बस चुका था परन्तु मानसिक रूप से अपने गाँव की मिट्टी ,परिवार और अपनी प्रयेसी स्नेहा से  जुड़ा हुआ था," कभी जब वह शीशा देखता जिसमें चेहरा तो उसका अपना होता किंतु आँखें स्नेहा की दिखाई देतीं l”
अपने माता-पिता की सेवा करने की चाहत में अपने जज़्बात को दबाकर आखिर बेबस होकर रजनीकांत अपने से तीन वर्ष बड़ी निशा नाम की लड़की से विवाह कर लेता है परन्तु यह विवाह सिर्फ एक समझौता बनकर रहता है l निशा के माता-पिता ने उसे पहले ही समझा दिया थl, “निशा बेटी,शादी होते ही अलग घर ले लेना l पाँच साल से पहले रजनीकांत ब्रिटिश पासपोर्ट के लिए एप्लाई नहीं कर सकता l तब तक उसे तुम्हारा गुलाम बनकर रहने की आदत हो जाएगी l” सचमुच धीरे-धीरे   रजनीकांत गुलामी -भरा जीवन जीने को विवश हो जाता है l
रजनीकांत और निशा  के घर पुत्र जन्म लेता है l बड़े चाव से रजनीकांत अपने पुत्र का नाम हर्षद रखता है ,परन्तु पश्चिमी सँस्कृति में पली-बढ़ी निशा पुत्र का नाम हर्षद से हैरी रख देती हैl रजनीकांत न तो अपनी पत्नी निशा और न ही पुत्र हर्षद से आत्मिक रूप से जुड़ पाता हैl इसलिए, "वह यह सोचकर परेशान होता रहता है कि उसके और उसके पुत्र हर्षद के बीच रिश्तों का कोई तंतु भी नहीं ज़ुड़ पा रहा है l” उधर रजनीकांत और निशा के सम्बन्धों में भी बिखराव आ चुका होता है l दोनों एक ही छत के नीचे एक साथ रहते हुए भी अजनबी बनते जाते हैं  l निशा के होते हुए भी रजनीकांत हरदिन सुबह काम पर जाने से पहले रात की बची ठण्डी रोटियां खाकर काम पर जाता है  l हालातों ने उसे इतना कमजोर बना दिया होता है कि वह अपनी पत्नी की मनमानियों को नहीं रोक पाता l निशा कार से काम पर जाती है और रजनीकांत बस से l पति होने के नाते जिस आदर-सम्मान का हकदार वह होता है उससे भी वह वचिंत ही रहता है l
कहानी में शुरू से लेकर अंत तक ही रजनीकांत हालात के सामने घुटने टेक देता है l कहीं भी वह विद्रोह करने की हिम्मत नहीं कर पाता l चूंकि एक व्यक्ति के जीवन की मजबूरी और परिस्थिति ही उसे समझौता करना सीखा देती है और कहानी में रजनीकांत इसका ज्वलंत उदहारण है l रजनीकांत मन-ही-मन सोचता है कि आखिर उसके साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है? उसके मित्र महेश, नयन, प्रफुल्ल और महेन्द्र भी तो उसकी तरह ही भारत से आकर लंदन में विवाह करके बस गए हैं परन्तु 'क्यों वही उलझनों के धागों में फंसा रहता है ? इन्हीं अनसुलझे प्रश्नों का जवाब न मिलने पर रजनीकांत भीतर-ही-भीतर कचोटता रहता है l उसके जीवन की विडम्बना है कि वह अपने भीतर के इस दर्द को किसी के सामने प्रकट भी नहीं कर पाता l वह अपने इस दर्द भरे जीवन का दोषी किसी और को नहीं बल्कि स्वयं को और परिस्थितियों को ही मानता है, “वह किसी को भी दोष नहीं दे पाता l ......बस हालात.....!” सिर्फ अच्छा जीवन जीने की चाह में ये रास्ता उसने ही तो चुना था और जिसका परिणाम आज उसकी आँखों के सामने था l हालात का मारा रजनीकांत अपने पिता की मृत्यु पर भी गाँव नहीं जा पाता l जैसे शुरुआत में कही बहन की बात सच होने लगी थी ,“ देख लीजिएगा ,एक बार वहाँ पहुँच गया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखेगा l ” धीरे-धीरे परिस्थितियाँ जैसे रजनीकांत पर हावी होने लगीं थी l वह चाहकर भी प्रतिरोध नहीं कर पाता था l यह कटु तथ्य है कि कभी परिस्थितियाँ मनुष्य के अनुसार नहीं बदलतीं बल्कि मनुष्य परिस्थितियों के अनुसार अपने को बदलता है l अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए रजनीकांत शराब का सहारा लेने लगता है ,“ गाँव में कहाँ शराब पीता था ,वहाँ तो बाथी ,बापूजी थे.वहाँ तो शराब के बारे में सोचना भी पाप था, वहाँ तो छाछ पीता था,या फिर चाय l समय और स्थान के साथ-साथ पेय भी बदल जाते हैं,और पीने वाले भी l ”
रजनीकांत को शारीरिक रूप से गाँव जाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता लेकिन वह अकेलापन कचोटने पर और गाँव की मिट्टी की सुगंध, सरसों के पीले फूलों व खेतों की याद आने पर ख्वाबों द्वारा ही अपने वतन की सैर कर आता  है, जहाँ वह सब कुछ देखकर महूसस करता है l उसकी माँ उसे पत्र में पैसे भेजने को कहती है ताकि घर की जरूरतों को पूरा किया जा सके l चूकिं रजनीकांत निशा की तानाशाही का गुलाम बन चुका होता है इसलिए वह ड़रते हुए माँ को पैसे भेजने की बात निशा को बताता है ,परन्तु निशा पैसे भेजने के लिए मना कर देती है क्योंकि ,“ उसके अनुसार उनका परिवार तो बस उन तीनों को लेकर ही है l ” एक बार फिर से परिस्थिति से हारकर रजनीकांत पैसे न भेजकर अपने पुत्र-कर्तव्य निभाने की चाह को मन में ही दबा लेता है l वह जानता है कि निशा से बहस करने पर भी वह अपनी बात नहीं मनवा पाएगा l हर एक परिस्थिति से तो जैसे रजनीकांत ने सहजता से समझौता करना सीख लिया था l उसके मन में यह बात घर कर गई थी कि जिस लक्ष्य को लेकर वह लंदन आया था वह तो धरा का धरा ही रह गया l उसका मन बगावत करने को कहता था पर दिमाग साथ नहीं दे पाता था l कभी-कभी वह ऐसा संकल्प लेता ,“ मैं निशा को तलाक दे दूँगा परन्तु जीवन के लक्ष्य की तरह ही संकल्प भी बिखर जाता l
कहानी का अंत अत्यंत सम्वेदनशील मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है l अब रजनीकांत पर पत्नी और परिस्थिति की तरह उसकी अंतरआत्मा भी हावी हो जाती है l उसकी अंतरआत्मा की आवाज उसे कहती है ,“ रजनीकांत ,तुम कुछ नहीं करोंगे,न तो तुम अपनी पत्नी को छोड़ोगे और न यह देश-तुम और तुम्हारे दोस्त यह जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो l” कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा जी के द्वारा रजनीकांत के जीवन के यथार्थ को सम्वेदनात्मक धरातल पर प्रस्तुत किया है l रजनीकांत पर परिस्थितियाँ इस कदर हावी हो जाती हैं कि वह कठपुतली की तरह विवश होकर पराश्रित जीवन व्यतीत करता है l कहानी में अजनबीपन,अकेलापन,संत्रास,कुण्ठा आदि जैसे मार्मिक भावों को इस तरह से रूपायित किया गया है कि स्याही से लिखे अक्षर जीवंत होकर सशक्त भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति देते चले जाते हैं l
अब तक  हिन्दी-कहानी के क्षेत्र में नारी-विमर्श के माध्यम से नारी-जीवन में व्याप्त शोषण,मानसिक यातना,परम्परामुक्ति ,पितृसत्तात्मक विद्रोह संघर्ष, अस्मिता एवं अस्तित्व की लड़ाई व नारी-सशक्तीकरण की बात की जाती रही है l परन्तु तेजेंद्र शर्मा जी की कहानी अभिशप्त के माध्यम से उस पुरुष-वर्ग की मानसिक यातना का मार्मिक वर्णन किया गया है जो चाहकर भी अपनी पितृॠण से मुक्त होने की आंकाक्षा रखते हुए भी नारी -आधिपत्य  को स्वीकार कर लेता है और स्वयं को नियति के अधीन कर अपना समग्र जीवन चिन्तन के ताने-बाने में व्यर्थ ही गुजारने को मजबूर हो जाता है l रजनीकांत अपनी व्यक्तिगत आँकाक्षाओं को प्राथमिकता न देकर अपने गृहस्थ जीवन की बलिवेदी पर अपना जीवन न्यौछावर कर देता है l रजनीकांत अपनी पत्नी की प्रत्येक इच्छा की पूर्ति करके उसका पग-पग पर साथ देता है परन्तु निशा उसको तिरस्कृत करने में ही अपना अहम् समझती है l
रजनीकांत के माध्यम से एक प्रवासी भारतीय के उपेक्षित जीवन को रेखांकित किया गया है कि किस प्रकार वह विदेशी पृष्ठभूमि पर असामंजस्य स्थिति का सामना करता है जिससे वह मानसिक विकार से आक्रान्त भी होता है l परिणामस्वरूप वह अपने शरीर तथा मन को अमानुषिक यंत्रणाओं को सहने का अभ्यस्त बना लेता है , जहाँ निशा द्वारा रजनीकांत के विचारों के फ़ड़फ़ड़ाते पँखों को भी कतर दिया जाता है l रजनीकांत मूलतः भारतीय है उसके सँस्कारों में वैवाहिक संस्था के प्रति अटूट आस्था है कि वह चाहकर भी उसे तोड़ नहीं पाता l उसके जीवन में स्वाभिमान की भावना का उदय होता है परन्तु वह कायर और भीरु बनकर अपने आत्मसम्मान को स्वयं ही छिन-बिन कर देता है l कहानी में पति-पत्नी के विचारों में प्रतिस्पर्धा की भावना बखूबी नजर आती है परन्तु वह कानूनी कटघरे में न जाकर घर की चारदीवारी के अंदर ही दम तोड़ती रहती है l
भारतीय परम्परा के अनुसार विवाह को दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच एक पारस्परिक माधुर्य सम्बन्ध के रूप में स्थापित किया जाता है और यदि यह सम्बन्ध किसी एक को भी अपेक्षित सुख नहीं दे पाता तो सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया जाता है परन्तु रजनीकांत इसका पर्याय नहीं है बल्कि वह इस परिपाटी को ढ़ोता चला जाता है l जहाँ उसका समस्त जीवन दुःख व अभाव की कहानी ही बन जाता है l उसके जीवन की यह त्रासदी है कि गुजराती माध्यम से बी..करके भी वह भारत में नौकरी से वंचित रह जाता है , यहाँ तक कि लंदन  में भी वह बंधुआ मजदूर बनकर जीवनयापन करता है l इससे अच्छा तो यही होता कि वह अपने ही देश में कोई छोटा-मोटा काम करके अपने माता-पिता की सेवा करता और अपनी प्रेयसी का प्यार पाकर स्वाभिमानी जीवन व्यतीत करता l
कहानी में निशा एक ऐसा चरित्र है जो पति से भिन्न अपना अलग अस्तित्व स्थापित करती है l उसे पति के अहं के सम्मुख अपना अहं भाव अधिक प्रिय है l वह किसी भी स्थिति में स्वयं अपराजित नहीं होना चाहती और उसमें तार्किक शक्ति इतनी प्रबल है कि वह पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था के हर फन्दे को काटने का सामर्थ्य रखती है l निशा स्वयं को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में घोषित करने की दृढ़ता अपनाती है, जहाँ वह अपने ही पति को मानसिक रूप से प्रताड़ित कर उसका भावनात्मक शोषण करती है l अगर देखा जाए तो कहानी पुरुष-विमर्शका सशक्त उदाहरण है l 
यह सत्य है कि मानव-संरचना में नारी-पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तथा दोनों ही समरसतापूर्ण व्यवहार से अपने वैवाहिक व पारिवारिक जीवन की नीव को मजबूत बनाते हैं, किंतु तेजेंद्र शर्मा जी की इस कहानी में रजनीकांत अपने ही बलबूते पर वैवाहिक सम्बन्धों को कायम रखने की कोशिश करता रहता है l इस कहानी के माध्यम से कहानीकार ने पुरुष मन के भीतर आर्थिक स्वावलम्बन, अधिकार-चेतना, व्यक्तित्व की महत्ता व स्वतंत्र जीवनदृष्टि आदि जैसी भावनाओं को प्राप्त न कर पाने की टीस को प्रस्तुत कर पुरुष-विमर्श को एक नया आयाम दिया है l
अब बात कहानी में प्रयुक्त भाषाशैली की करते हैं. कहानीकार ने अपनी भाषा में गूढ़ और क्लिष्ट शब्दों के स्थान पर सरल, सुबोध, आम बोलचाल और रोजमर्रा की भाषा का प्रयोग करके पाठक-मन को प्रभावित किया है l
कहानी में प्रतीकों, बिम्बों, संकेतों, चिन्तन-प्रधान, दृश्यात्मक, पात्रानुकूल व प्रसंगानुकूल भाषा और शैलियों के अन्तर्गत वर्णनात्मक, पूर्वदीप्ति, संवादात्मक वार्तालाप ,पत्र शैली आदि का प्रयोग भाषा के सौंदर्य की अभिवृद्धि करने तथा स्वाभाविकता प्रदान करने में सहायक सिद्ध हुआ है l  कहानी का शीर्षक प्रतीकात्मक और सटीक  है ,क्योंकि रजनीकांत कहानी में शुरू से अंत तक भावग्रस्त जीवन व्यतीत करने को अपनी नियति मानकर अभिशप्त हो जाता है l कहानीकार ने पूर्वदीप्ति शैली (फ्लैश बैक ) के माध्यम से रजनीकांत नायक के जीवन की व्यथा को बखूबी प्रस्तुत किया है l अभिव्यक्ति और अनुभूति दोनों ही स्तरों पर कहानी अमिट छाप छोड़ती है l

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