Saturday, 4 May 2013

प्रतिभा बनाम शोहरत



हम होंगें कामयाब,हम होंगें कामयाब,एक दिन ......माँ द्वारा गाये जा रहे इस मधुर गीत से मेरे अन्तःकरण में नए उत्साह का स्पंदन हो रहा था .माँ मेरे माथे को प्यार से सहलाती हुई मुझे समझा रही थी , “ जब कोई भी व्यक्ति आत्मविश्वास और पूर्णनिष्ठा से कर्मयोगी बनकर किसी भी पथ पर अग्रसर होता है तो सफलता अवश्य ही उसके चरण चूमती है .इसलिए हमें ये बातें जीवन में सदैव याद रखनी चाहिए ” .
                 माँ द्वारा कही गई उपरोक्त बातें मेरे लिए अमृतमय घुटी के समान थी .एकाएक दीदी की आवाज़ चल उठ ,तुझे कालेज जाना है सुनकर मेरी नींद खुल गई .मैं नहा धोकर झटपट कालेज जाने के लिए तैयार हो गई .घर से बाहर निकलते ही गली के मोड़ पर बहुत-से लोगों का हुजूम ढ़ोल-ढमाके की धुन पर नाचते हुए आगे बढ़ रहा था .चार लोगों के कन्धों पर सवार मिस्टर वर्मा गले में ढ़ेर सारी फूलों की मालाएं पहने लोगों की वाहावाही लूट रहे थे .कुछ लोग उनके नाम की जय जयकार करते हुए स्वयं को कैमरे में कैद करवाने के लिए भरसक कोशिश में लगे थे .पता लगा कि मिस्टर वर्मा जी राज्य में मंत्रीपद के लिए मनोनीत हुए हैं .ऐसा सुनते ही मुझे जोरदार झटका लगा और मिस्टर वर्मा के जीवन के अतीत की परछाइयाँ मेरी मानस पटल पर उभरने लगी .सिर्फ बारहवीं पास वर्मा जी की विचार-शक्ति अक्सर लड़ाई-झगड़ों ,दादागिरी व रिश्वतखोरी में ही अपना कमाल दिखाती थी .एक समय था जब वर्मा जी गलियों की धूल फांकते इधर-उधर भटकते थे .पर आज दुराचारी मिस्टर वर्मा ने पैसे और ताकत के बल पर ही राज्य में मंत्रीपद को बड़ी आसानी से प्राप्त कर लिया .
                         मेरे कदम कालेज की ओर बढ़ते जा रहे थे परन्तु दिमाग वही का वही उलझा हुआ था और मैं सोचने पर मजबूर हो गई कि आज प्रत्येक क्षेत्र में पैसे ,सता और ताकत के बल पर नाम ,शोहरत व मान सम्मान इत्यादि ब्रिकी की वस्तुएं बन गई है .जबकि प्रतिभावान व्यक्ति अपने सुनहरे और सुखद सपनों को धराशायी होते हुए देखता रह जाता है .उसकी स्थिति ठीक उस पंछी के समान होती है जिसके उड़ने से पहले ही पंखों को काटकर पिंजरे में बन्द कर दिया जाता है जहाँ सिर्फ और सिर्फ वह मायूस होकर अपने पंख फड़फड़ाकर अपने भाग्य को कोसता है .पिछले ही दिनों मेरा एक हिन्दी सम्मेलन में जाना हुआ .कार्यक्रम में अध्यक्ष महोदय ने अचानक वहाँ उपस्थित लेखिकाओं में से एक सुप्रसिद्ध लेखिका को मंच पर दो शब्द कहने के लिए आमंत्रित कर लिया.लेखिका महोदय डगमगाते कदमों से मंच पर पहुँचकर लड़खड़ाती आवाज़ में श्रोताओं को सम्बोधित कर रही थी .लेखिका के मुख से निकले शब्दों और विचारों का आपसी तालमेल नहीं था .इतने में एक जोरदार हंसी का ठहाका कानों में सुनाई दिया.लेखिका महोदया सकपकाती हुई अपनी बात को आधी अधूरी कह मंच से उतर गई .आश्चर्य की बात तो यह हुई कि सम्मारोह के अन्त में उसी लेखिका को मान सम्मान से नवाज़ा गया और अध्यक्ष महोदय उनकी प्रंशसा के पुल बाँधते हुए नज़र नहीं समा रहे थे .
                               मैं वहां बैठी सोचने लगी कि आज व्यक्ति को उसकी प्रतिभा से नहीं अपितु उसके नाम से जाना जाता है .यहाँ तक कि अगर बात किसी भी साहित्य-जगत से सम्बन्धित की जाए तो इतिहास गवाह है कि हमारे प्राचीन गरिमापूर्ण समृद्ध माने जाने वाले साहित्य की तुलना में आज का साहित्य मात्र गिनती के कुछ साहित्यकारों को छोड़कर अपरिपक्व है और कई रचनाकारो द्वारा बाजारू व अश्लील भाषा को भी परोसा जा रहा है .ऐसे में लोग रातों रात प्रसिद्धि और मान सम्मान को प्राप्त करने की लालसा में गणमान्य साहित्यकारों की श्रृँखला में आने के लिए कोई न कोई रास्ता अपना ही लेते हैं .सही मायनों में साहित्य का उद्देश्य मानवता का उद्धार करते हुए उसे सही दिशा दिखाना है परन्तु ऐसे लोग मानवता की बात को छोड़ अपना उद्धार  तो कर ही लेते हैं इनके द्वारा लिखे जा रहे साहित्य का कोई औचित्य सिद्ध नहीं होता अपितु ऐसा साहित्य पढ़कर पाठक वर्ग तनाव व भटकाव से उत्पन्न कुण्ठाग्रस्त स्थिति को अवश्य भोगता है .परिणामस्वरूप हताश हुआ मानव नैतिक मूल्यों को भूलकर दूषित मानसिकता के तहत जघन्य अपराधों को अंजाम देता है  .यही कारण है कि आज हिन्दी साहित्य में दूसरा प्रेमचन्द ,अंग्रेज़ी साहित्य में दूसरा जार्ज बर्नाड शाह और पंजाबी साहित्य में दूसरा वीर सिंह नहीं हुआ. आज हमारी संस्कृति सभ्यता ,भाषा व देश का अस्तित्व खतरे में है .साहित्य समाज के लिए एक प्ररेक और मार्गदर्शक का काम करता है पर जब ऐसे ही अपरिपक्व ,कूड़ा-कर्कट व बाजारू साहित्य की सृजना की जाएगी तो उस पर सुदृढ़ समाज की स्थापना कैसे सम्भव है .इसलिए आज हमें सोचना होगा कि हम प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति को मान सम्मान दें या केवल शोहरत का लबादा ओड़े प्रतिभाहीन व्यक्ति की जय जयकार करें .

डॉ प्रीत अरोड़ा

Tuesday, 30 April 2013

प्रवासी साहित्य की कहानियों में यथार्थ और अलगाव के द्वंद्व

समाज में जो कुछ घटित होता है .साहित्यकार की लेखनी में वह कैद होता जाता है क्योंकि साहित्यकार भी अपने परिवेश से प्रभावित होता है . ऐसे में वर्तमान समय में पैसे, मान -प्रतिष्ठा ,अस्तित्वबोध  व कैरियर आदि को लेकर अक्सर पारिवारिक,सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक,धार्मिक व शैक्षणिक क्षेत्र में यथार्थ और अलगाव से द्वंद्वात्मक स्थितियाँ  स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है .प्रवासी साहित्यकार इन्हीं परिस्थितियों से रू-ब-रू होकर प्रवासी-जीवन के अनछुए पहलुओं को बेहद आत्मीय तरीके से अपनी कहानियों में वर्णित कर रहे हैं .

             आधुनिक युग में व्यक्ति की अधिकार-सजगता ने उसकी स्थिति ,मान्यताओं व संस्कारों को अत्यधिक प्रभावित किया है .उसके लिए प्राचीन मान्यताएं बदल चुकी हैं .व्यक्ति अपने जीवन में किसी दूसरे का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करता .ऐसे में अनेक लोग ऐसे भी मिल जायेंगे जिनके लिए विवाह संस्था से भी जुड़ी जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्धों की भारर्तीय-कल्पना का कोई मूल्य नहीं रह जाता. भारतीय समाज की अपेक्षा विदेशी परिवेश में लिव-इन रिलेशनशिप ,प्रेम-प्रसंग ,विवाह-विच्छेद व पुनर्विवाह इत्यादि आसानी से स्वीकार किए जाते हैं।  उदाहरणार्थ .लेखिका उषा वर्मा की कहानी 'सलमा ' एक ऐसी भारतीय नारी सलमा के जीवन की गाथा है जो लंदन में विवाहोपरान्त अपने पति की उपेक्षाओं का शिकार होकर असुरक्षा की भावना और मानसिक द्वंद्व के चलते आत्महत्या करने की कोशिश करती है परन्तु जल्दी ही वह सशक्त होकर अपने पति का परित्याग कर पुनर्विवाह के लिए रजामंद हो जाती है .उषा जी ने मानव-मन की जटिल मानसिकता,द्वंद्व और निर्णय लेने की क्षमता को कथा कौशल की तूलिका से कैनवस पर उतारा है .

             कई बार वैवाहिक संस्था के अंतर्गत पति -पत्नी द्वारा लिया गया सम्बन्ध-विच्छेद का निर्णय उनके बच्चों में अविश्वास व अपराधबोध की स्थिति पैदा कर देता है जो ताउम्र बाल -मन को भीतर ही भीतर कचोटता रहता है .माता-पिता के अहम् की टकराहटों का कुपरिणाम बच्चे भोगते हैं। लेखिका उषा राजे सक्सेना जी की कहानी ''ड़ैड़ी''भी इसी विषय पर आधारित है .माता -पिता के अलगाव से उत्पन्न मानसिक द्वंद्व से त्रस्त होती है उनकी बेटी .यद्यपि बेटी को अपने सौतेले पिता द्वारा भरपूर प्यार मिलता है तथापि उसके मन में एक ही सवाल कचोटता है कि आखिर उसके पिता ने उनसे नाता क्यों तोड़ा था ? जिसके परिणामस्वरूप वह अपने जन्मदाता  से मिलने का सपना लिए उनके घर जाती है परन्तु पिता की मृत्यु का पता लगने पर उसके मन में सवालों की गुत्थी अनसुलझी ही रह जाती है .कहानी में नायिका अतीत की धुँधली तस्वीर से पर्दा उठाना चाहती है परन्तु वर्तमान के नए रिश्तों का समीकरण लेकर लौटती है .लेखिका ने अतीत का पुनर्मूल्यांकन करके वर्तमान में नए रिश्तों की तल्ख़ सच्चाई को स्वीकारा है .

        आज भारत में लिखीं जा रही अधिकांश हिंदी कहानी स्त्री विमर्श के नाम पर दैहिक कहीं-कहीं दैहिक विमर्श भी करती नज़र आती हैं . जबकि प्रवासी कहानियाँ मानवीय यथार्थ के भीतर मूल्यों की तलाश करती नज़र आती है। स्त्री-पुरुष संबंधो की कहानियाँ वहां भी हैं मगर उनमें उतना खुलापन नही है, जितना भारतीय हिंदी  कहानियों में नज़र आता है, भारतीय मानव-मन अपनी मातृभूमि व रिश्तों से अलग होकर विदेशी परिवेश में एड़जस्ट नहीं हो पाते। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि भारत व विदेश की सँस्कृति - सभ्यता व जीवन-शैली में अत्यधिक अन्तर है .वहाँ एक आकर्षण है। वहाँ की दुनिया कई बार स्वप्निल संसार भी रचती है। कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा जी ने अपनी कहानी ' अभिशप्त ' के माध्यम से एक प्रवासी भारतीय के उपेक्षित जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत किया है जो अपना सर्वस्व त्यागकर द्वंद्वात्मक स्थिति को झेलता है .रजनीकांत का भारत से लंदन जाना और वहां की सँस्कृति व परिवेश में स्वयं को मिसफिट पाना उसके जीवन का कटु सत्य बन जाता है .रजनीकांत और उसकी पत्नी निशा के सम्बन्ध कानूनी कटघरे में न जाकर एक ही छत के नीचे साँस लेते हैं .तेजेन्द्र जी ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि विदेशी परिवेश में वैवाहिक बन्धन व्यक्ति की अभिरूचि ,इच्छा व दृष्टिकोण के अलग-अलग होने के कारण अप्रसांगिक हो जाते हैं .अपनों से विलग होकर असहनीय पीड़ा को व्यक्ति अन्दर ही अन्दर महसूस करता है और प्रत्येक स्थिति को नियति मानकर भोगने के अभिशप्त हो जाता है .

           रिश्तों में यथार्थ और अलगाव के द्वंद्व के विषय में मैं लेखिका सुधा ओम ढ़ींगरा जी की कहानी '' आग में गर्मी कम क्यों हैं ?'' का उल्लेख करना चाहूँगी , जिसका शीर्षक ही संबंधों में आ गई ठंडक का प्रतीक है.कई बार दाम्पत्य जीवन में कारण प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट नहीं होते पर वे रिश्तों में अपनत्व की गर्मीं को समाप्त कर देते हैं. कारणों की अस्पष्टता से ही अक्सर दाम्पत्य जीवन में अलगाव की स्थिति पैदा हो जाती है. कारण जब वीभत्स रूप धारण कर सम्मुख खड़े होते हैं तो उस कटु यथार्थ को सहना असहनीय हो जाता है। संबंधों की ठंडक से पैदा हुआ अलगाव और यथार्थ से जूझती नायिका के द्वंद्व की संवेगात्मक अभिव्यक्ति है यह कहानी. कहानी की नायिका साक्षी अपने पति (शेखर ) के परपुरुष ( जेम्स ) से सम्बन्धों की कड़वी सच्चाई को स्वीकार तो कर लेती है परन्तु अन्तरद्वंद्व की पीड़ा से जूझती है .जेम्स का शेखर को किसी अन्य पुरूष के लिए छोड़कर चले जाना शेखर को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर देता है .अन्ततः साक्षी के जीवन का यह कटु यथार्थ बन जाता है कि वह अमरीका में नितान्त अकेली व अजनबी की तरह प्रत्येक स्थिति को भोगने के लिए मजबूर हो जाती है-
" आज वह गौर से उस लकीर को ढ़ूँढ़ रही है जिसने उसके भाग्य को अस्त कर दिया. हथेलियाँ उसे धुँधली-धुँधली दिखाई दे रही हैं ....लकीर साफ़ नज़र नहीं आ रही.''
 नवीन जीवन की आंकाक्षा रखने वाला व्यक्ति अपने अस्तित्व का बोध स्वतंत्रता की अनुभूति में करता है .जहाँ उसकी अपनी महत्वकांक्षाओं के कारण सीमित दायरों की पकड़ ढ़ीली हो जाती हैं.उसके कदम एक नई राह की ओर निकल पड़ते हैं परन्तु परिस्थितिवश वे नई राहें ही पारिवारिक सम्वेदना के वृत को तोड़ देती है और परिणामस्वरूप घर बिखर जाता है .इसका उदाहरण लेखिका 'अनिल प्रभा कुमार ' जी द्वारा रचित कहानी ' घर ' है
               कहानी में नायिका नादिरा द्वारा अपने पति के नीरस और उबाऊ रवैये के कारण होनहार पुत्र (सलीम ) व पति को छोड़ देना सलीम के ड़ाक्टर बनने के सपने को भंग कर देता है .लेखिका ने प्रवासी मन के द्वंद्व को दिखाने के लिए लेखकीय तटस्थता का प्रयोग किया है .जहाँ सलीम मनोचिकित्सक की सलाह पर चिड़ियाघर में नौकरी करके उसे ही अपना अशियाना बना लेता है .कहानी की अन्तिम पँक्तियाँ उसकी मार्मिक स्थिति को उजागर करती है - " सलिल  वही कार में बैठा देखता रहा .सलीम धीरे-धीरे पैर घसीटता हुआ,उस राख के शामियाने के नीचे जा रहा था -अपना घर ".लेखिका ने कहानी में सलीम की दर्दनाक सम्वेदना को प्रस्तुत करने के लिए बाल -मनोविज्ञान की सूक्ष्म परतों की गहराई में उतरकर उन्हें जानने,समझने व विश्लेषित करने का सफल प्रयास किया है .

           वर्तमान युग में अनेक मध्यवर्गीय भारतीय परिवारों द्वारा अपनी बेटियों की शादी किसी अप्रवासी भारतीय युवा से करने का चलन कटु यथार्थ है। ऐसे रिश्ते करना और उसको प्रचारित करके  गौरव-बोध से भर जाना, इतराना, यही मानसिकता हो गयी है। लेकिन अनेक रिश्तों की दुखान्तिकाएं भी सामने आती रही हैं। इला प्रसाद जी द्वारा रचित ' ग्रीन कार्ड ' नामक कहानी इसी विषय को प्रतिपादित करती है .कहानी में सीमा नामक भारतीय नारी का विवाह अमरीका के समीर से होना अत्यंत हर्ष का विषय होता है परन्तु समीर का अमरीका अकेले वापस लौट जाना सीमा के हिस्से में प्रतीक्षा की घड़ियाँ छोड़ जाता है .ग्रीन कार्ड न मिलने पर समय और भाग्य भी सीमा का साथ छोड़ते नज़र आते हैं .इला जी ने इस कहानी में मानव-मन के सुनहरे सपनों की उड़ान के कारण ह्रदय में होने वाली विचलन और उद्वेलन को वाणी दी है .कहानी की शुरुआत में वे लिखती हैं --
" अब हर दिन छुट्टी का दिन है
समय बेरहम है ,अपनी गति से गुजरता है  "

अन्त मैं यह कहना चाहूँगी कि प्रवासी साहित्य के अन्तर्गत  कहानीकार पूरी ईमानदारी से आधुनिक समाज ख़ास कर भारतीय लोगों की सामाजिक, पारिवारिक  समस्याओं का चित्रण करते हुए समाज की दशा व दिशा को सुधारने का अथक प्रयास  कर रहे हैं जिसके फलस्वरूप उनके द्वारा रचित साहित्य में ह्दय को स्पर्श करने की क्षमता व मार्मिकता का विशेष रूप से समावेश है. इसलिए प्रवासी साहित्य को किसी दायरे में सीमित करने या भारत में लिखे जा रहे साहित्य से अलग करके देखने की जरूरत नहीं है अपितु जरूरत है उस मानवीय सम्वेदनाओं से रू रूह होकर उन्हें महसूस करने की जिनका ज्रिक प्रवासी रचनाकार अपने साहित्य में बखूबी कर रहें हैं. यही कारण है कि प्रवासी कहानियों का ट्रीटमेंट आम हिन्दी कहानियों से बिलकुल अलहदा हैं. और बहुत हद तक आश्वस्त भी करता है कि ये कहानियां भारतीय मन को एक हद तक समझती हैं और उनके दर्द को, उनके हर्ष-विषाद को नया वैश्विक विस्तार देती है। यह भी कहा जा सकता है कि  लगभग हर प्रवासी हिंदी कहानी कहानी के उस ताप को भी बनाये रखती है, जिनकी कमीं भारतीय हिंदी लेखन में महसूस की जाती रही है।
डॉ.प्रीत अरोड़ा

Saturday, 27 April 2013

हम ‘पूजा करें न करें पर प्यार करते रहें’---उषा वर्मा



 
भारत में जन्मीं लेखिका उषा वर्मा जी वर्तमान में ब्रिटेन में रहकर हिन्दी के विकास में अपना योगदान दें रही हैं l संघ बरेली से सम्मानित उषा जी शाने अदब भोपाल,निराला सम्मान हैदराबाद, तथा कथा यू.के. लंदन से कहानी संग्रह कारावास पर पद्मानंद साहित्य सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। उनकी अबतक की प्रकाशित पुस्तकों में क्षितिज अधूरे,कोई तो सुनेगा(कविता संग्रह ) ,कारावास (कहानी संग्रह) और संपादित पुस्तकों में सांझी कथायात्रा,एवं प्रवास में पहली कहानीऔर अनूदित पुस्तकों में बच्चों की पुस्तक हाउ डू आई पुट इट आन, का हिन्दी अनुवाद पचीस उर्दू कहानियों का हिन्दी अनुवाद मुख्य है l प्रस्तुत है उषा वर्मा जी की ड़ा प्रीत अरोड़ा से विशेष बातचीत l

प्रश्न--उषा जी आपने संगीत में उच्च शिक्षा प्राप्त की और फिर दर्शन शास्त्र में एम.ए। तो इसके बाद आपकी रुचि हिन्दी साहित्य में कैसे हुई?
उत्तर--प्रीत जी आपके इस प्रश्न के उत्तर में मुझे अमृता प्रीतम याद आती हैं। दर्शन मेरे लिए सारा आकाश है, व्यापक है विस्तृत है पर उस आकाश के नीचे मुझे रहने के लिए एक घर चाहिए,और यह घर मेरे लिए साहित्य है, जहां मैं क्लांत हो कर विश्राम लेती हूं।इस घर में कई कमरे हैं,संगीत का कमरा अधिकतर बंद ही रहा । जब दर्शन  में एम.ए. किया तो वही मेरे जीवन का पाथेय बना साहित्य की आत्मा का जो भी विस्तार हुआ उसमें दर्शनशास्त्र का बहुत बड़ा योगदान है मेरे शिक्षक डा.देवराज, डा.सुरमा दासगुप्ता  थीं   जिनसे मुझे प्रेरणा मिली ।डा.देवराज उन दिनों हिंदी में ख़ूब लिख रहे थे और प्रायः साहित्य और दर्शन में किसे चुने इस अन्तर्द्व्नद की बात भी करते थे।संभवतः मेरे मन पर उसी का प्रभाव पड़ा। साहित्य में विस्तार की संभावनाएं मुझे अपने लिए अधिक रुचिकर लगीं।

2 प्रश्न- क्या आप के साहित्य पर दर्शनशास्त्र का प्रभाव पड़ा?
उत्तर-जी हां कविता में यह अधिक मुखर हो सका है।मैं समझती हूं कि मनुष्य अपने जीवन संघर्ष में विराट से टकराता है,बार-बार प्रश्न पूछता है,आत्म विश्लेषण करता है, सब कुछ नकार देता है,और नए नैतिक आग्रहों की खोजबीन करता है।मेरी कविताओं में मिथक प्रतिरोध की मुद्रा में ही आए हैं।और यह सब कुछ कहीं बहुत अंदर से आता है। दर्शन, हमें जीवन के तमाम पक्षों को उलट पुलट कर देखने की दृष्टि देता है।और ये पक्ष साहित्य के अंग हैं।  कह सकती हूं कि साहित्य पर दर्शन का काफ़ी प्रभाव पड़ा। इसने मुझे साहित्य को सही अर्थ में समझने  की शक्ति दी, साथ-साथ जीवन की विषमताओं से जूझने की सामर्थ्य दी।दर्शन में तत्व मीसांसा के प्रश्नों ने तरह तरह से घेरा है।मैं तुम्हारा प्रतिबिम्ब हूं।(तुम्हें मूं चिढ़ाता हुआ, इस भूखंड पर खड़ा हुआ और नहीं कुछ बस, तुम्हारा ही आईना हूं।) और यह घेरना मुझे बहुत हूर तक नहीं ले जाता। (क्या तुम अर्धसत्य नहीं हो।)इन सब का सामना ज़मीन की सच्चाइयों में ही ढूंढने का प्रयास किया है।(मरने वाले से तुम्हें क्या मिलेगा,ज़िंदा रहने वाला तुम्हारे नाम को चलाता हैँ)दर्शन की विवेचना ने ही मुझे इन ज़मीनी सच्चाइयों तक पहुंचाया है। 
3 प्रश्न--आप किन साहित्यकारों से अत्याधिक प्रभावित हुई हैं?
उत्तर--प्रीत जी यह तो लम्बी श्रंखला है, यदि आप का आशय भारत के साहित्यकारों से है, तो एक उम्र में टैगोर, शरत ,प्रेमचन्द, यशपाल आदि ने फिर प्रसाद, पंत निराला, महादेवी , अज्ञेय मुक्ति बोध नागार्जुन दिनकर और रेणु आदि को पढ़ा। किन्तु नागार्जुन तथा निराला जी ने अत्यधिक  प्रभावित किया। उसके बाद एक लम्बा अंतराल। यहां आने के बाद नए परिवेष में तालमेल बिठाना सब कुछ समझना। साहित्य कब कहां  छूट गया, कु छ पता ही न चला। वे दिन बेहद संघर्ष के थे, बेपनाह चिंताएं।  संघर्ष तो सब जगह है ही। एक दूसरा दौर शुरू हुआ, बीच के साहित्यकारों को मैने इधर 1990 के बाद पढ़ा, जब हाई कमिश्नर सिंघवी दम्पति ब्रिटेन आए। उससे पहले सभी अपनी अपनी सामर्थ्य भर लिख रहे थे। लेकिन उन्हों ने सब को एक सूत्र में बांधा। भारत के साहित्यकारों में डा. नामवर सिंह ,डा.विश्वनाथ त्रिपाठी, गिरधर राठी, चित्रा मुदगल,.सूर्यबाला, ममता कालिया,रवीन्द्र कालिया डा. गंगाप्रसाद विमल  डा महीप सिंह डा. कैलाश बाजपेई, कमलेश्वर और सीतेश आलोक इन सब का मैं बहुत सम्मान करती हूं,मैने इनका साहित्य पढ़ा मैं इनके साहित्य के अलावा इनके व्यक्तिगत गुणों के लिए भी सम्मान करती हूं। भारत इतना बड़ा है बहुत से साहित्यकार हैं, लेकिन  मैं  थोड़े से  लोगों को जानती हूं।
4 प्रश्न-- क्या विदेश में रह कर अन्य साहित्यकारों से आपका मिलना जुलना होता है?
उत्तर--जी हां,साहित्यकारों से मिलना तो बराबर ही होता रहता है।और मैं उनके प्रोग्राम भी यॉर्क में करती हूं। नेहरू सेंटर में जब कभी कोई साहित्यिक  उत्सव होता है तो जाती रही हूं। किन्तु यॉर्क लंदन से दूर है इसलिए विशेष अवसर पर ही जाती हूं। विराट कवि सम्मेलन में जो साहित्यकार आते हैं वे यॉर्क भी आते हैं ।यॉर्क में हम अपनी संस्था  भारतीय भाषा संगम में साल में तीन या चार छोटी गोष्ठिय़ां भी करते हैं।अतः मिलना जुलना तो होता ही है।
5 प्रश्न--अब तक आपकी कौन कौन सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                उत्तर--लिखा तो बचपन से, पर उसे कहीं छपवाया नहीं। एक तो सुविधा नहीं थी। दूसरी बात कि मैंने कभी यह सोचा ही नहीं कि मैं अपनी लिखी चीज़ों को छपवा सकती हूं। मेरी पहली किताब इंग्लैंड आने पर 1998 में  छपी। इसके पहले कुछ कविताएं हैदराबाद से प्रकाशित हुई थीं।
वाणी प्रकाशन दिल्ली से प्रवास में पहली कहानी और प्रभात प्रकाशन दिल्ली से सांझी कथायात्रा,  विद्या विहार दिल्ली से कारावास और बोडली हेड प्रकाशन  लंदन से हाउ डू आई पुट इट आनका हिन्दी अनुवाद तथा दो कविता संग्रह क्षितिज अधूरे बुकप्ल्स दिल्ली से, मेघा प्रकाशन दिल्ली से कोई तो सुनेगातीन और किताबें यदि
संभव हुआ तो शीघ्र आएंगी।
 6 प्रश्न--आप अपनी रचनाओं में किन विषयों को उठाती हैं, और आपके कविता संग्रह कोई तो सुनेगा में
किन विषयों को संजोया गया है?
उत्तर--मेरी कविताओं में विश्वजनीन समकालीन विषय ही होते हैं।इन रचनाओं पर दर्शन का प्रभाव स्पष्ट  है।कहीं पहुंचने की तीव्र इच्छा,वह न हो सका तो निराशा,फिर आत्म-विष्लेषण। धार्मिक विषयों पर व्यंग्य, और मिथक मेरी कविताओं में  प्रतिरोध की मुद्रा में आए हैं। इसका दूसरा स्वर प्यार है। प्यार हमारे अहं को तोड़ता है।                                              कोई तो सुनेगा पुस्तक का शीर्षक ही यह संकेत देता है कि इसमें एक पुकार है, और यह आकांक्षा भी है कि इस पुकार को  कोई न कोई सुनेगा। इसके दो पक्ष है एक तरफ़ गहरे मानवीय संबंधों की रक्षा के लिए, तो दूसरी तरफ़ संशय से घिरा आर्त मन पूछता है क्या तुम अर्ध-सत्य नहीं हो।इसमें प्रश्न हैं प्रतिप्रश्न हैं, बाजारवाद के खिलाफ़ आवाज़ मुखर हुई है,- कौन छीन ले गया ,हमारी संवादनाओं को, हमारे प्यार को, जो तुम्हारे प्रति समर्पित था। इतिहास के प्रति एक चेतना है, यद्यपि मैं समझती हूं कि इतिहास निष्पक्ष नहीं होता, न कोई उससे कुछ सीखता ही है।मेरी कविताओं में न कोई शिक्षा है, न कोई नारा, न कोई वाद ही है। कहीं- कहीं अपने को समझने का प्रयास है। आत्म-विवेचना है। मेरे घनीभूत अनुभव के दायरे में जो कुछ भी आया चाहे वह सुख, दुःख या विचित्र उसे मैंने स्वर देने का प्रयास किया है। अपने अंदर के अंदर झांकने की प्रबल इच्छा है।अतः कह सकते हैं कि यही विचार- तत्व लगातार काम कर रहा है।

7 प्रश्न-- आपने हिन्दी कहानियों का उर्दू अनुवाद भी किया है । उर्दू का ज्ञान आपने कहां से लिया?
उत्तर--उर्दू मैने स्वयं सीखा है । मैने उर्दू कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया है। यदि हो सका तो यह पुस्तक शीघ्र हिंदी लिपि में आएगी ।एक छोटी सी घटना, जब मैने स्कूल में उर्दू पढ़ी तो उस्तानी जी ग़लती करने पर कान मरोड़ देती थीं। मैं रोज़ मन ही मन बिनती करती थी कि उस्तानी जी बीमार पड़ जाएं । छः सात महीने बाद उनकी नौकरी खतम हो गई, तब क्या पता था कि उसी  उर्दू से मुझे इतना प्यार हो जाएगा। बाद में एम,ए. करते समय मैने उर्दू स्वयं पढ़ी ।बहुत मन से उर्दू साहित्य पढ़ा और पढ़ाया भी। मेरी दो संपादित पुस्तकों में ब्रिटेन की महिला उर्दू कथाकारों की कहानियों का अनुवाद उर्दू से हिन्दी में मैने स्वयं किया है।समय निकाल कर मैं अभी भी उर्दू साहित्य पढ़ती रहती हूं । मुझे भाषा सीखने का शौक़ है।बगंला भाषा मेरी मां को आती थी। मैने इसे भी उनकी मदद से घर पर ही सीखा।
8 प्रश्न--आप स्वयं को एक सफल कवयित्री मानती हैं या सफल कहानीकार और क्यों?
उत्तर--प्रीत जी यह तो टेढ़ा प्रश्न है। जब आप साहित्यकार की बात करती हैं तो मुझे अत्यंत संकोच होता है।अपने बारे में मुझे कोई मुग़ालता नहीं है। मैं कविता, कहानी, लेख लिखती हूं पर अपने मन की डिमांड पर । बाज़ार साहित्य में बुरी तरह घुस गया है जिस सफलता की हम बात करते हैं उस कसौटी पर तो मैं कहीं भी नहीं हूं। समकालीन भारतीय साहित्य में मार्च- अप्रैल 2010 के 209पृष्ट पर कोई तो सुनेगा का मूल्यांकन छपा है।और कारावास पुस्तक की समीक्षा संचेतना के 2009के जून-अगस्त अंक छपी है, संचेतना के2010 मार्च –से मई के अंक में एक साक्षात्कार छपा है। मुझे लगा बिना किसी शोर शराबे के भी कोई सुन रहा है।मैं अपने को साहित्य का विद्यार्थी ही मानती हूं।
9 प्रश्न--आपने पुस्तकों का संपादन भी किया है, आपका संपादन के क्षेत्र में क्या अनुभव रहा है?
उत्तर--संपादन का काम श्रम  साध्य होता है। और इसे योजनाबद्ध तरीके से करना पड़ता है । सबसे पहला काम पत्र लिखना, वर्ड प्रोसेस से लेकर अंत तक सारी रचनाओं को इकट्ठा करना ,काट-छांट करना, पढ़ना, कभी कोई तथ्य ग़लत लगे तो उसे लाइब्रेरी जा कर देखना आदि ज़रूरी और समय की मांग करता है।मैने किताबों का संपादन अपनी छोटी बहन चित्रा  के साथ किया था । और फिर छोटी बहन के साथ तो काम करना एक सुखद अनुभव  रहा ।मुझे टीम में काम करना अच्छा लगता है। किसी भी टीम में काम करने के लिए सब कुछ पहले से तय करना ठीक रहता है। यदि आप अनजान संपादक हैं तो प्रकाशक  का मिलना ही मुश्किल होता है। मैं इस विषय  से बहुत ख़ुश हूं कि मुझे वाणी प्रकाशन तथा प्रभात प्रकाशन का पूरा सहयोग मिला। मैं उनका आभार मानती हूं

10 प्रश्न--क्या आपने साहित्य के अलावा किसी और क्षेत्र में भी क़दम रखा
उत्तर--स्कूल से वि,वि. तक सभी सांस्कृतिक कार्य़क्रम, नृत्य, संगीत, ड्रामा वाद- विवाद सब में भाग लिया। अन्तर्रविश्वविद्यालय वाद-विवाद प्रतियोगिता में गोल्ड-मेडल मिला । किंतु संगीत और नृत्य में आगे कुछ नहीं किया।उसके लिए सुविधा नहीं थी।
11 प्रश्न--आपको कौन से कार्य के लिए निराला सम्मान से नवाजा गया.?
उत्तर--मुझे 2005 में मेरे काव्य संग्रह क्षितिज अधूरे पर निराला सम्मान मिला।2009 में कहानी संग्रह कारावास पर कथा यू.के का पद्मानंद साहित्य सम्मान मिला।
12 प्रश्न--आपको अपनी कौन सी रचना सर्वाधिक प्रिय है और क्यों”?
उत्तर--प्रीत जी, मैंने इतना अधिक तो नहीं लिखा है कि चुनाव करूं, जो भी लिखा है वह मन से पूरे सुख-दुखमें डूब कर ,और वह सब प्रिय है। शायद कभी आपसे मिलना हो तो इस पर चर्चा कर सकूं।

13 प्रश्न--आजकल विदेश में रह रहे हिन्दी साहित्यकारों  के लिए प्रवासी शब्द का प्रयोग
 किया जा रहा है, आप इससे कितनी सहमत हैं?
उत्तर--प्रवासी शब्द हो या शुद्ध हिन्दी या नॉस्टेलजिया  या फिर और बहुत से स्लोगन चर्चा में बने रहने के लिए अच्छे हैं। साथ ही साथ ये प्रयास थोड़ा हवा को साफ़ भी करते हैं। किन्तु मुझे नहीं लगता कि इस से साहित्य सृजन में कोई अंतर आएगा । प्रवासी शब्द से अधिक प्रवासी हिन्दी साहित्य के प्रति भारतीय मुख्यधारा के कुछ हिन्दी साहित्यकारों का रवैया इस तरह का रहा कि यहां के साहित्यकारों को यह प्रश्न उठाना पड़ा । इसका कोई समाधान होगा मुझे नहीं लगता। किन्तु विस्थापन का संघर्ष, जिसे बिना जाने समझे आपके कुछ साहित्यकार नास्टाल्जिया, खंडित व्यक्तित्व, और विभाजन की त्रासदी कह कर यहां के लेखन को दर किनार कर देते हैं, इस तरह के विशेषण न हमें उत्साहित करते हैं न सदभावना पैदा करते हैं। संभवतः ये लोग अपने पूर्वाग्रह से आगे सोच नहीं सकते। ऐसे लोग अगर भारत में हैं तो यहां भी हैं।


14 प्रश्न--विदेश में रह कर आपको साहित्य के क्षेत्र में किन किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?
उत्तर--लेखन में चुनौतियां तो हैं ही आप कहीं भी रहें। बाज़ार साहित्य में अपने पूरे ताम- झाम के साथ पसर कर बैठ गया है। बाज़ार ही साहित्य के आदर्श को तय कर रहा है। क्या बिक सकता है? जैसे लोग रातो-रात करोड़पती बनना चाहते है, उसी तरह लेखक भी रातो-रात शिखर पर पहुंच जाना चाहता है।और इसके लिए लेखन के अलावा लेखक को और भी बहुत कुछ करना पड़ता है। यह तो सामाजिक चुनौतियां हैं, पर व्यक्तिगत रूप से मैं राजधानी से दूर हूं।, साहित्यकि गोष्ठियों का अभाव, पुस्तकों का अभाव। लंदन में हाई-कमीशन है जहां किताबें भी हैं, किंतु जिनका वितरण हिंदी अधिकारी को एक सहायक न मिलने के कारण सुचारु रूप से नहीं होता । सांस्कृतिक केंद्र नेहरू सेंटर है जहां भारत से साहित्यकार आते हैं।सबका राजधानी पहुँचना हमेशा संभव नहीं हो पाता न ही वे उन क्षेत्रों में  साहित्यकारों को भेजने को प्रबन्ध करते हैं।
15 प्रश्न-- आपके घर में कौन सा सदस्य आपके साहित्य-लेखन में साधक या बाधक सिद्ध हुआ?
उत्तर--मैं स्वयं ही बाधक और साधक दोनो ही हूं।मेरा छोटी बहन चित्रा, मेरे पति महेन्द्र तथा दोनों बेटे और बहू तथा परिवार के अन्य सदस्यों ने मुझे मेरी साहित्यिक यात्रा में सदा प्रोत्साहन दिया है। हर तरह से इसे सुविधाजनक बनाया है।मेरा पहला कविता संग्रह छप ही सका क्यों कि महेन्द्र मेरी इधर उधर पड़ी  हुई कविताओं को सम्हाल कर रख देते थे।अपनी पहली पुस्तक क्षितिज अधूरेछपी, देख कर इतनी ख़ुशी हुई कि अब मैं स्वयं सब कुछ सम्हाल कर रखती हूं।मैं ही बाधक हूं क्योंकि लिखने के लिए बैठती हूं तो किताबों में मन उलझ जाता है। पढ़ना तो होता है पर उसी तरह लिखना नहीं हो पाता। हर दिन अपने से किया वादा तोड़ती हूं। साधक इस लिए कि जो कुछ भी लिखा गया है वही मेरी साधना है। और अब तो बाधक मेरा स्वास्थ्य है।
16 प्रश्न-- उषा जी क्या आप जीवन पर्यन्त विदेश में रहना चाहेंगी या आपकी मातृभूमि की ओर भी वापसी होगी।?
उत्तर--प्रीत जी –आपके इस प्रश्न ने मन को कहीं बहुत गहरे छुआ है। मातृ-भूमि की तरफ़ वापसी का प्रश्न अब कहां उठता है। निश्चय ही लौटना नहीं होगा। अकेला-पन हर हालत में है। मेरे और महेन्द्र के भाई बहन भारत में हैं, हमारा परिवार यहां, तो दोनों तरफ़ अकेले-पन का यह सिलसिला जीवन भर बना रहेगा। जितने दिन शरीर साथ दे बार-बार सब से आकर मिल सकूं यही इच्छा है।वापसी  न होने पर भी लौटने की ललक तो साथ जाएगी ही।
17 प्रश्न--हिन्दी साहित्य के प्रेमियों के लिए कोई संदेश देंगी।
उत्तर--हम सब की पारस्परिक सद्भावना और विश्वास में आस्था निरंतर बनी रहे।हम पूजा करें न करें पर प्यार करते रहें