Sunday 29 April 2012

नारी सिर्फ भोग्य नहीं है ,उसकी अस्मिता की एक प्रतिष्ठा है – रश्मि प्रभा

हिंदी साहित्य की परम्परा में अपनी संवेदनशील कविताओं द्वारा अपनी अलग पहचान बनाने वाली कवियत्री ‘रश्मि प्रभा ‘ महाकवि सुमित्रानंदन पंत की मानस पुत्री सरस्वती प्रसाद की बेटी हैं . इनका नामकरण भी सुमित्रानंदन पंत जी ने ही किया था  . इनका मानना है कि अगर ये शब्दों की धनी न होतीं तो इनका मन ,इनके विचार इनके अन्दर ही दम तोड़ देते .इनका मन जहाँ तक जाता है ,इनके शब्द उसकी अभिव्यक्ति बन जाते हैं .इनका मानना  है कि वटवृक्ष को गवाह मान,दुआओं  के  धागे इसकी गहरी  शाखाओं  से जोड़कर मेरी कलम ने मेरा परिचय लिखना चाह है .पापा की करेजी बेटी ,माँ के रानी बेटी ,काबुलीवाले की मिन्नी बनी पिस्ता बादाम का जादू देख ही रही थी कि दर्द का पहला धुँआ आखो से गुजरा .शमशान की गली ,वृक्षो की कतार  ,बहती नदी .जलती चिता  ….कोमल मन  पर  एक अलग चित्र बनकर उभर गए .शब्दों की जादुई ताकत माँ ने दी .कमल बनने का संस्कार पिता ने ,नाम सुमित्रनानद पन्त ने ,परिपक्वता  समय की तेज़ आंधी ने .जो कुछ भी लिखा -वह आखो  से गुज़रता सच था .सच की ताकत ने न जाने कितनी मौत  से मुझे बचाया और हर कदम पर एक नया एहसास  दिया .एहसास  तो बड़े  गंभीर  थे, पर मन  हमेशा  सिन्ड्रेला  रहा .सिन्ड्रेला  की कविताये मेरे मोहक  सपनो से कभी दूर हुए ,कभी पास आए …..उनको पास लाने के लिये मै मोहक सपने बेचती रही और सपनो की हाट मे घूमते हुए जाने कितने सपनो से दूर होती जाती रही   .”तुम्हारा  क्या गया जो  तुम रोते  हों “-ऐसी पंक्तियों का स्मृति बाहुल्य था .मै हर फ्रेम मे फिट होती गयी. “प्रसाद कुटी “की ताकत लेकर  लिखती गयी ,मिटाती भी गयी  ….अचानक प्रवाह मिला ,अनुपम ,अलोकिक  शब्दों  का स्पर्श मिला ,आखो मे सपने -ही सपने भर गये  …जब नया आयाम मिला .कोई नाम नहीं  ,कोई  रिश्ता नहीं …पर जन्मों का साथ लगा -कोई आत्मा या परमात्मा या……जो भी कह लो….मैंने खुद  नहीं जाना तो तुम्हे  क्या बताऊ  -बस इतना सच है कि मै  उसे जानती हूँ ,वह मेरी प्रेरणा  ,मेरा प्रवाह ,मेरा  सामर्थ्य  है और उसके साथ  मै  हूँ …संजीवनी बने  मेरे तीन स्तंभ -मृगाक  ,खुशबु  ,अपराजिता …..और इससे  अधिक मेरी कोई पहचान  नहीं हुई ,चाहा भी नहीं ….क्योकि कितने  भी तूफ़ान आए ,ऋतुराज बसंत आज भी यही उतरता है .सर्वप्रथम  ‘कादम्बनी  “मे इनकी कविता को स्थान मिला .क्रमशा वुमेन आन  टॉप ,गर्भनाल ,जनसता ,यूके  से प्रकाशित पुरवाई ,राजस्थान  पत्रिका  ,वातायन आदि मे इनकी रचनाओं का प्रकाशन हुआ है .इनका काव्य -संग्रह-शब्दों  का रिश्ता .(३१)कवियों  को लेकर अनमोल  संचयन  का संपादन ,२००७ मे ब्लॉग लेखन का आरंभ .(हिंद युग्म मे ऑनलाइन कवि सम्मलेन ,ऑनलाइन ऑडियो विडियो का विमोचन -कुछ उनके नाम गीतों भरी कहानी का इन्टरनेट पर आरंभ ),ऑनलाइन वटवृक्ष के माध्यम से लेखकों  को  प्रोत्साहन .प्रस्तुत है रश्मि प्रभा जी से ड़ा प्रीत अरोड़ा की विशेष बातचीत—-
   प्रीत अरोड़ा—आपके लेखन की शुरुआत कैसे और कब  हुई और आपका प्रेरणा -स्त्रोत कौन है ?
 रश्मि प्रभा– शब्द , भाव और उन्हें पिरोने की कला  मुझे मेरी माँ श्रीमती सरस्वती प्रसाद से मिली . बचपन से ही एक साहित्यिक वातावरण मेरे घर में था . चाँद हो , सूरज हो, हवा हो , रास्ते हों , या कोई सपना हो – उसे अपने शब्द , अपने भाव देने के लिए माँ कहती और उनका यही प्रयास मेरे लिए प्रेरणा साबित हुई !टूटी फूटी रचनाएँ तो मैं कम उम्र से लिख जाती थी , पर एक भाव निहित रचना मैंने सबसे पहले १९७३ में लिखी और वह ‘कादम्बिनी’ में प्रकाशित हुई . फिर मैं लिखती गई …. लिखने के पीछे सबसे बड़ा कारण था शोर के बीच यूँ कहें भीड़ में मैं खुद को बहुत अकेला पाती थी .मेरी पहली रचना ‘अकेलापन’ ही थी , जिसकी पंक्तियाँ कुछ यूँ थीं -
‘सिंह कभी समूह में नहीं चला
हँस पातों में नहीं उड़े
इन पंक्तियों का स्मृति बाहुल्य था
बहुत से ह्रदय मेरे संग नहीं जुड़े ….’
 प्रीत अरोड़ा—-आप सुमित्रानन्दन पंत जी की नातिन हैं ? स्वाभाविक है कि उनके साथ आपकी बहुत- सी यादें जुड़ी होगी .पाठकों के साथ कुछ यादें साझी कीजिए ?
उत्तर–मैंने प्रारंभ में भी कहा और जहाँ भी इस बात का उल्लेख किया वहाँ यह स्पष्ट कथ्य है कि कवि पन्त ने मेरी माँ को अपनी बेटी माना . कवि पन्त ने विवाह ही नहीं किया था .मेरे बचपन का एक पूरा दिन उनके सामीप्य में उनके इलाहाबाद स्थित घर में बीता . और कहने को वह एह दिन मेरी ज़िन्दगी बन गया . दृश्य जो आँखों से गुजरते हैं , वह समयानुसार अलग- अलग छाप छोड़ते हैं . उनके कमरे की सादगी , उनका सौन्दर्य , उनका स्नेहिल व्यवहार , उनका अपनी कविता गाकर सुनाना , मुझे नाम देकर मेरे भविष्य के गर्भ में आशीष देना , मेरे नाम अपनी पंक्तियाँ देकर यह बताना कि हर उम्र का सम्मान होता है और मेरे प्रश्न पर कि ‘ नाना हैं तो नानी ….’उपस्थित होकर भी उनका खो जाना मुझसे कभी जुदा ही नहीं हुआ . जब कोई कहता है – प्रथम रश्मि का आना रंगिनी तूने कैसे पहचाना …’ मुझे अपनी पहचान मिल जाती है – हर बार ,नए मायने लिए .
प्रीत अरोडा़—आपका साहित्य लेखन किस हद तक सुमित्रानन्दन पंत जी से प्रभावित हुआ है ?
रश्मि प्रभा–मेरा नाम ही प्रकृति से जोड़ दिया उन्होंने , तो – यह तो आप सब ही तय करेंगे कि कितना प्रभावित है मेरा लेखन .
प्रीत अरोड़ा–क्या आपकी माँ सरस्वती प्रभा जी भी लिखती हैं ?
रश्मि प्रभा–हमारी माँ ही हमारा स्रोत हैं …. वे लिखती ही नहीं , बल्कि आए दिन विभिन्न विषयों पर हमसे लिखने को कहकर हमें एक सशक्त आधार देती गयीं …. हमें ही नहीं हमारे बच्चों को भी उन्होंने बहुत कुछ सिखाया . उनका प्रिय खेल ही था – लिखो ‘ . उनकी रचनाओं का संग्रह -’ नदी पुकारे सागर ‘ प्रकाशित है .
प्रीत अरोड़ा–आपको साहित्य की कौन -सी विधा में सबसे अधिक रूचि है और क्यों ?
  रश्मि प्रभा–साहित्य की काव्यात्मक विधा में मेरी अधिक रूचि है, क्योंकि इसमें कम शब्दों में ही अनकही भावनाओं को विस्तार मिल जाता है .
 प्रीत अरोड़ा– महिला लेखिकाओ में से किस महिला लेखिका से आप अत्यधिक प्रभावित हुई हैं ?
रश्मि प्रभा  — महिला लेखिकाओं  में कई एक नाम हैं , जैसे- महादेवी वर्मा , महाश्वेता देवी, मैत्रेयी देवी …..इन विशिष्ट  नामों के बीच मुझे शिवानी की रचनाओं ने बहुत प्रभावित किया . वयोवृद्ध साहित्यकार रामप्रकाश गोयल कहते हैं – ‘ शिवानी जी की उंगलियाँ नारी जीवन की हर नब्ज़ तक पहुँचती हैं .’माँ गुजराती  विदुषी, पिता अंग्रेजी के लेखक , पहाडी पृष्ठभूमि और गुरुदेव की शिक्षा ने शिवानी की भाषा और लेखन को बहुआयामी बनाया .शिवानी के कथाशिल्प में नारी की व्याकुल स्पृहा , स्वर, स्वरुप , प्रकृति , पीड़ा , धर्म और आक्रोश – आवेश उभरकर सामने आए हैं . उनके पात्रों में कोमल भावनाएं थरथराती थीं , प्रेम झिलमिलाता था . उनकी कहानी पढ़ते हुए मैं एक स्वप्निल प्रेम की अद्वैत धारा में बहती जाती रही . ‘कृष्णकली’ ने महीनों मुझे  कृष्णकली के सांचे में डाले रखा .हिंदी का आम पाठक उनकी लेखनी के जादू से बंधा ही उनकी इस कृति ‘कृष्णकली’ से , जो धर्मयुग में धारावाहिक प्रकाशित हुई थी .
सरल को उसी अंदाज में कहना बहुत मुश्किल होता है, पर शिवानी ने सरल को बड़े सरल ढंग से कहा . सबसे बड़ी बात उनके लेखन की यह रही कि उन्होंने कहानियों का विषय हमेशा यथार्थ से लिया और उसे बड़ी ईमानदारी से लिखा . उन्होंने अपनी रचनाओं में कभी ऊपर से कृत्रिम ढंग से बौद्धिकता थोपने की चेष्टा नहीं की .
प्रीत अरोड़ा–समकालीन संदर्भ में स्त्री -विमर्श से आपका क्या तात्पर्य है ?
 रश्मि प्रभा–महादेवी वर्मा ने लिखा है -
‘विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होगा
मैं नीर भरी दुःख की बदली…’   ये पंक्तियाँ दर्शाती हैं कि स्त्री होने के कारण उनकी कुछ अनसुलझी गुत्थियां थीं , जो सभ्य समाज पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं !ऐसी ही न जाने कितनी कवितायेँ लड़कियों की जिजीविषा को उकेरती आज भी मिल जाएँगी , क्योंकि आज भी पुरानी मान्यताओं वाले संतान के रूप में लड़के की ख्वाहिश रखते हैं ! पर ७०% लोगों को अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लड़के के रूप में कोई उसका उत्तराधिकारी है या नहीं …. आज लड़की अपना हक़ लेना सीख गई है . शादी-विवाह के मामले में भी वह अपनी पसंद- नापसंद को अर्थ देने लगी है . उसने अपनी आर्थिक स्थिति को भी मजबूत किया है .पत्नी के रूप में वह घर, बच्चे संभालती है , पर पति या सास से खरीखोटी सुनना या मार खाना उसे गवारा नहीं . स्त्री विमर्श को  देह विमर्श का पर्याय मान लिया गया है – उसकी दैहिकता को शील, चरित्र और नैतिकता से जोड़ लिया जाता है …खान-पान , वेशभूषा , रहन-सहन ,कामकाज , पढ़ाई-लिखाई यहाँ तक कि तीज त्योहारों के नियम भी स्त्रियों पर लागू होते रहे हैं .पुरुष की तरक्की उसकी काबिलियत से जोड़ी जाती है और स्त्री की हर उंचाई , हर सफलता को उसके शरीर से जोड़ दिया जाता है !सारे विमर्श के केंद्र में मुख्य चिंता की बात ये है कि आखिर स्त्री का वजूद क्या है ! स्त्रियों ने चिंता की इस लकीर को मिटाने के लिए कई दृढ़ कदम उठाये . मेरी स्वयं की रचनाओं में सशक्त नारी कहती है -
‘बहुत छला  तुमने
या फिर यूँ कहो
स्वभाववश मैं छली गई
पर अब-
ये मुमकिन नहीं
भूले से भी नहीं …’
पर इस राह पर जिस तरह उसने अपनी जगह बनायीं है उसे देख मेरी ही कलम कहती है -
धू धू जलती बहुएं
दहेज़ की बलि वेदी
लांछनों का सिलसिला
रोटी के टुकड़ों का हिसाब …
स्तब्ध कई परिवार !
न न्याय, न समाज, न परिवार
बस एक प्रश्न ….
क्या होगा फिर !
और मौन स्वीकृति – मृत्यु !
….
एक नहीं दो नहीं ….
अनगिनत बेटियों के ख्वाब
दहेज़ की आग में स्वाहा हो गए
भय का अनकहा साम्राज्य
समाज में सिसकियाँ लेता रहा
तब—हाँ तब
लड़कियों ने अपनी ज़मीन को
अपने ज़मीर को अहमियत दी
हर क्षेत्र में अपना सिक्का जमाया
कम हो गया भय बेटी होने का
फख्र हुआ बेटीवालों को
सर उंचा करके सब कहने लगे
‘यह हमारा बेटा है….!’
यानि बेटियों की जीत
उनके ‘बेटा’ कहलाने का ठोस प्रमाण बनी …
…..
इस प्रमाण पत्र को पाने की चाह में
लड़कियों की ‘मासूमियत’ खो गई !
(मासूम लड़की आगे बढ़ ही नहीं सकती )
अधिक सबल बनने की ख्वाहिश लिए
लड़कियाँ घर से दूर हो गईं ……
शिक्षा और शारीरिक संरचना -
दो अलग आयाम हुए
घर से दूर
दो अलग मुकाम हुए !
…………
घर से दो कदम की दूरी पर
जब वहशी आँखें पीछा करती हैं
अश्लील बोल लहू गर्म कर जाते हैं
तो भाई से दूर
पिता से दूर
माँ की ममता से दूर
ये लड़कियाँ….
!!!
लगभग सबने
अपनी घबराहट अपने भय को
उच्चश्रृंखल अंदाज बना लिया
बनाया एक दोस्त …
यहाँ तक कि लिविंग रिलेशनशिप को
कानून बना देने को बाध्य किया !
…..
आलोचना की कुर्सी से उठो
न्यायकर्ता का का चोगा उतारो
और संवेदनशील होकर सोचो …
तभी जानोगे
भय ने इन लड़कियों को
जिस तिस का हाथ थाम लेने को
विवश कर दिया है !
सड़क का अँधेरा
और भयभीत धड्कनें …
दरिंदों से बचने का
सुगम उपाय ढूंढ निकाला है …..
…..
देखा था इन लड़कियों ने
अपनी माँ का हश्र !
सहमी आँखें
आंसुओं के सूखे निशान
और थरथराते कदम …
विवाह ने एक भय भर दिया उनमें
चाहे अनचाहे
वो लड़कों को तौलने लगीं …
समाज !परिवार !न्याय !
विशेष रूप से महिलाएं !…
ज़िम्मेदार हैं मर्यादाओं के हनन का !
अनिच्छा से पत्नी का दायित्व निभाती महिला को
सबने सीख दी
पर खुली हवा नहीं दी !
पत्नी की मौत
पति का ब्याह … कभी गलत हुआ नहीं
पर ज़ुल्म का विरोध
स्त्री की धृष्टता बन गई !
….
सरेराह उठाकर ले जाई लड़की के लिए
प्रत्यक्ष गवाह का प्रश्न उठा
बेरहमी से अन्याय सहती स्त्री के आगे
‘क्यूँ?’ का प्रश्न उठा ….
न्याय के नाम पर अर्जियां पड़ी रहीं
उम्र बीतती गई
प्रश्न उठते रहे
एक ही कहानी- दोहराने की भी हद होती है !
नई पीढ़ी ने
हर तथाकथित मर्यादाओं को ताक पर रख दिया
और भीड़ में गुम हो गई !
कभी देखा है -
अपने अस्तित्व के लिए
अपने टुकड़े के लिए
रात दिन एक करती ये लड़कियाँ
जब रात के सन्नाटे में
अपने कमरे में होती हैं
तो इनकी आँखों में कोई सपना नहीं होता !!!
प्रीत अरोड़ा–नारी अस्मिता व अस्तित्व के संदर्भ में आपकी क्या अवधारणा है ?
रशिम प्रभा–  स्त्रियों के अस्तित्व को सदियों से नकारा गया है , पिछले कुछेक वर्षों से उनकी परिस्थितियों के सन्दर्भ में विस्तृत अध्ययन किये जा रहे हैं , उनके व्यक्तित्व के निर्माण के लिए व्यापक अभियान चलाये जा रहे हैं .नारी सिर्फ भोग्या नहीं , उसकी अस्मिता की एक प्रतिष्ठा है !…. दरअसल नारी को कभी सम्पूर्णता में नहीं देखा गया . अब समय की पुकार है कि सारे मिथ , सारी संहिताएँ और स्मृतियाँ भुलाकर नए विचार, सोच और मानसिकता का निर्माण करें…
प्रीत अरोड़ा–सही अर्थो में नारी की मुक्ति किससे है ?
 रश्मि प्रभा –नारी मुक्ति – इस शब्द का भाव यदि समझा जाये तो इसका तात्पर्य परिवार और समाज से बगावत नहीं है बल्कि उसके साथ चल रही कुरीतियों , विसंगतियों और शोषण से मुक्त करने की मुहीम है . केवल आरक्षण , महिला दिवस , महिला सशक्तिकरण वर्ष मनाने से अथवा नारी मुक्ति आन्दोलन चलाने से महिलाएं मुक्त नहीं हो जाएँगी . इसके अंतर्गत कुछ अहम् प्रश्न उठते हैं -
क्या नग्नता आज़ादी की निशानी है ? क्या बिना शादी किये रहना स्वतंत्रता है ? क्या अर्धरात्रि में अकेले या लड़कों के साथ घूमना ही मुक्ति है ? नारी मुक्ति की पहचान क्या है ?मेरे विचार से किसी भी दासता से मुक्ति ही मुक्ति है ….स्त्री स्वयं इस दासता को स्वीकार करती जाती है और फिर पुरुष हावी होता जाता है ! सही मायनों में नारी को स्वयं अपने विचारों से मुक्त होना है . उसे अपनी उर्जा , अपनी अस्मिता , अपने आर्थिक-सामाजिक हक़ को एक अर्थ देना है और उसके लिए मन से मजबूत होना है !
 प्रीत अरोड़ा– समाज के उत्थान में नारी का क्या योगदान हो सकता है ?
रश्मि प्रभा– समाज के उत्थान में नारी का योगदान हमेशा से अविस्मर्णीय रहा है – सबसे पहले तो नारी का मातृ रूप , जहाँ से पहला पाठ्यक्रम शुरू होता है . उसके बाद हर क्षेत्र — घर-गृहस्थी , रण में तलवार , दफ्तर में कलम , संगीत, राजनीति … हर क्षेत्र में नारी का सशक्त योगदान है. इतिहास पर गौर करें तो पार्वती के बिना तो शिव अधूरे हैं , द्रौपदी , कुंती , गांधारी का चरित्र ही महाभारत को कालजयी बनाता है . नारी कमज़ोर नहीं , अबला नहीं – शक्ति का पर्याय है . देवासुर संग्राम में शुम्भ निशुम्भ , चंडमुंड , रक्तबीज , महिषासुर आदि आसुरी शक्तियों का विनाश दुर्गा ने किया . इसी तरह अरि ऋषि की पत्नी अनुसुइया ने सूखे शुष्क विन्ध्याचल को हरियाली से भर देने के लिए तपस्या की और चित्रकूट से मन्दाकिनी नदी को बहने हेतु विवश किया . आदि से आज तक सामाजिक कहें, देश की कहें – नारी का अदभुत योगदान रहा है .
प्रीत अरोड़ा– आज ऐसा माना जा रहा है कि हिंदी भाषा का अस्तित्व सकंट में है क्या आप इस बात से सहमत हैं ?
रशिम प्रभा– हिंदी हमारे देश की भाषा , हमारा गौरव और वह सहज कड़ी जो दूर दूर तक आसानी से गंगा की निर्मल धारा सी बहती है. पर आज – हिंदी परोक्ष से अपना अस्तित्व ढूंढ रही है . हिंदी बोलना हमारी शान थी , हमारी पहचान थी , हमारी जुबां पर था -
                  ‘हिंदी हैं हम  वतन है हिन्दुस्तां हमारा ‘
बहुत दुःख होता है यह देखकर कि बड़े बड़े शहरों के मॉल में हिंदी की किताबें नहीं मिलतीं , न ही पत्रिकाएं उपलब्ध होती हैं . हिंदी की इस स्थिति की दयनीयता अपरिहार्य है !
प्रीत अरोड़ा– आप नवोदित लेखकों को क्या सन्देश देना चाहती हैं ?
रश्मि प्रभा  –नए कदम हमेशा नई उर्जा, नए सपनों से भरे होते हैं , उनसे बस इतना कहना चाहूँगी -
‘हवा के रुख को मोड़ने की चाह रखो
अपने अन्दर इतना विश्वास रखो
लोग तुम्हे भरमायेंगे
अनगिनत राह दिखायेंगे
चयन तुम्हारे हाथ है
अपने पर भरोसा करो-
आँखें बंद करो,
ईश्वर साथ हैं
तो डर किस बात पे है ?
किसी में इतनी ताकत नहीं कि
तुम्हारा हौसला ले ले
पंखों को खोलो
और आसमान को छू लो……….’
साक्षात्कारकर्ता—-ड़ा प्रीत अरोड़ा

मेरे द्वारा लिया गया कवयित्री रश्मि प्रभा जी का साक्षात्कार (प्रवासी दुनिया पर )

Tuesday 24 April 2012

                                                     संघर्ष ही जिन्दगी है आज की इस भागदौड़ भरी जिन्दगी में असफल होने पर हम अक्सर हताश हो जाते हैं और अपने काम को बीच में ही आधा-अधूरा छोड़कर बैठ जाते हैं l यह सच है कि मुश्किलों में भी हौसला रखकर आगे बढ़ने वालों की कभी हार नहीं होती l सफलता भी उसी के कदम चूमती है जो परिस्थितियों का सामना जिन्दादिली से करते हैं l आज साहित्य और धर्म के क्षेत्र के अन्तर्गत कबीर,तुलसी,मीरा,नानक,गौतम और सामाजिक क्षेत्र के अन्...तर्गत जवाहरलाल नहेरू,लाल बहादुर शास्त्री,मदर टेरेसा आदि का नाम उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अपने अथक प्रयासों और बुलंद हौंसले से अपनी सशक्त पहचान कायम की l मेरा भी यही मानना है कि अगर आप जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं तो बहुत जरूरी है कि मुश्किल परिस्थितियों में भी मत घबराएं और धैर्य व संयम के साथ निरन्तर आगे बढ़ते जाएँ l किसी ने ठीक ही कहा है---
“ जीवन एक चुनौती है स्वीकार करो
जबतक सफल न हो
नींद-चैन का त्याग करो
संघर्षों का मैदान फैला है
पार करो पार करो

--ड़ा प्रीत अरोड़ा
                                              संघर्ष ही जिन्दगी है आज की इस भागदौड़ भरी जिन्दगी में असफल होने पर हम अक्सर हताश हो जाते हैं और अपने काम को बीच में ही आधा-अधूरा छोड़कर बैठ जाते हैं l यह सच है कि मुश्किलों में भी हौसला रखकर आगे बढ़ने वालों की कभी हार नहीं होती l सफलता भी उसी के कदम चूमती है जो परिस्थितियों का सामना जिन्दादिली से करते हैं l आज साहित्य और धर्म के क्षेत्र के अन्तर्गत कबीर,तुलसी,मीरा,नानक,गौतम और सामाजिक क्षेत्र के अन्...तर्गत जवाहरलाल नहेरू,लाल बहादुर शास्त्री,मदर टेरेसा आदि का नाम उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अपने अथक प्रयासों और बुलंद हौंसले से अपनी सशक्त पहचान कायम की l मेरा भी यही मानना है कि अगर आप जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं तो बहुत जरूरी है कि मुश्किल परिस्थितियों में भी मत घबराएं और धैर्य व संयम के साथ निरन्तर आगे बढ़ते जाएँ l किसी ने ठीक ही कहा है---
“ जीवन एक चुनौती है स्वीकार करो
जबतक सफल न हो
नींद-चैन का त्याग करो
संघर्षों का मैदान फैला है
पार करो पार करो

--ड़ा प्रीत अरोड़ा

          आज के दैनिक भास्कर में प्रकाशित मेरे विचार ----" जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है "


Monday 23 April 2012

             ‘अभिशप्त – एक पुनर्पाठ '
डा. प्रीत अरोड़ा

तेजेन्द्र शर्मा एक ऐसे कहानीकार हैं जो जनमानस से विविध पात्रों को लेकर उनके दुख-दर्द ,उनकी आन्तरिक व मार्मिक दशा को पाठकों के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि चाहे वह पात्र काल्पनिक ही क्यों न हो वह सजीव हो उठते हैं और वह पात्र पाठक-वर्ग के मानस-पटल पर जीवंत होकर उन्हें भावाविभोर कर देते हैं l
तेजेंद्र जी की मर्मस्पर्शी कहानियों में से 'अभिशप्त ' कहानी एक अद्वितीय व अनूठी कहानी है, जिसमें उन्होंने एक मध्यवर्गीय परिवार से सम्बन्ध रखने वाले रजनीकांत के जीवन को यथार्थ के धरातल पर सहजता से प्रस्तुत किया है l कहानी में गुजराती माध्यम से बी..पास रजनीकांत नौकरी न मिलने और घर में व्याप्त गरीबी के कारण लंदन में जा बसता है l उसे लंदन ले जाने का ज़रिया बनती है उसके गाँव की दूर की बहन जो खुद भी लंदन में ही रहती है l यद्यपि रजनीकांत के पिता उसका जीवन सँवारने के लिए ही उसे बी.. करवाते हैं तथापि रजनीकांत को नौकरी नहीं मिलती l रजनीकांत अविवाहित भी है l किसी तरह बहन के कहने पर रजनीकांत के पिता उसे  लंदन भेजने के लिए राजी हो जाते हैं l रजनीकांत अपने ही गाँव की लड़की स्नेहा से प्रेम करता था और उससे विवाह करना चाहता था परन्तु बहन और अपने पिता की लंदन भेजने की बात सुनकर सोचने लगता है, “क्या स्नेहा के प्रेम को अभी से भूलना होगा ? यदि विवाह किसी और से होना है तो क्या स्नेहा से प्रेम करना उचित होगा ?क्या विवाह प्रेम की कसौटी है ?” आखिर स्नेहा को छोड़कर और अपने आँखों में सपने लिए रजनीकांत लंदन पहुँच ही जाता हैl” 
लंदन के हवाई अड़्डे पर उतरने पर वहाँ  की सुंदरता देखकर रजनीकांत मोहित हो जाता है l अपनी बहन और जीजा की बड़ी-सी कार को देखकर मन-ही-मन ख्याली पुलाव बनाने लगता है कि उसकी भी अपनी ऐसी बड़ी-सी कार होगी l लंदन में पहले तो रजनीकांत अपने बहन और जीजा के घर का काम  करने को मजबूर हो जाता है l वह अपनी भावनाओं को अंदर ही अंदर दबाता चला जाता है,"बंधुआ मजदूरों की सिर्फ कहानियाँ सुना करता था रजनीकांत.......बी..पास,सात समुद्र पर,इतनी दूर,अपनी दूर की बहन के घर मुंडू बन गया था......मुंडू l” लंदन में रहकर भी स्नेहा की याद रजनीकांत के मन में हर पल ताजा रहती l आँखें बन्द करने पर गोरी-सी स्नेहा का चेहरा रजनीकांत की आँखों के सामने उतर आता l चाहे वह शारीरिक रूप से लंदन में बस चुका था परन्तु मानसिक रूप से अपने गाँव की मिट्टी ,परिवार और अपनी प्रयेसी स्नेहा से  जुड़ा हुआ था," कभी जब वह शीशा देखता जिसमें चेहरा तो उसका अपना होता किंतु आँखें स्नेहा की दिखाई देतीं l”
अपने माता-पिता की सेवा करने की चाहत में अपने जज़्बात को दबाकर आखिर बेबस होकर रजनीकांत अपने से तीन वर्ष बड़ी निशा नाम की लड़की से विवाह कर लेता है परन्तु यह विवाह सिर्फ एक समझौता बनकर रहता है l निशा के माता-पिता ने उसे पहले ही समझा दिया थl, “निशा बेटी,शादी होते ही अलग घर ले लेना l पाँच साल से पहले रजनीकांत ब्रिटिश पासपोर्ट के लिए एप्लाई नहीं कर सकता l तब तक उसे तुम्हारा गुलाम बनकर रहने की आदत हो जाएगी l” सचमुच धीरे-धीरे   रजनीकांत गुलामी -भरा जीवन जीने को विवश हो जाता है l
रजनीकांत और निशा  के घर पुत्र जन्म लेता है l बड़े चाव से रजनीकांत अपने पुत्र का नाम हर्षद रखता है ,परन्तु पश्चिमी सँस्कृति में पली-बढ़ी निशा पुत्र का नाम हर्षद से हैरी रख देती हैl रजनीकांत न तो अपनी पत्नी निशा और न ही पुत्र हर्षद से आत्मिक रूप से जुड़ पाता हैl इसलिए, "वह यह सोचकर परेशान होता रहता है कि उसके और उसके पुत्र हर्षद के बीच रिश्तों का कोई तंतु भी नहीं ज़ुड़ पा रहा है l” उधर रजनीकांत और निशा के सम्बन्धों में भी बिखराव आ चुका होता है l दोनों एक ही छत के नीचे एक साथ रहते हुए भी अजनबी बनते जाते हैं  l निशा के होते हुए भी रजनीकांत हरदिन सुबह काम पर जाने से पहले रात की बची ठण्डी रोटियां खाकर काम पर जाता है  l हालातों ने उसे इतना कमजोर बना दिया होता है कि वह अपनी पत्नी की मनमानियों को नहीं रोक पाता l निशा कार से काम पर जाती है और रजनीकांत बस से l पति होने के नाते जिस आदर-सम्मान का हकदार वह होता है उससे भी वह वचिंत ही रहता है l
कहानी में शुरू से लेकर अंत तक ही रजनीकांत हालात के सामने घुटने टेक देता है l कहीं भी वह विद्रोह करने की हिम्मत नहीं कर पाता l चूंकि एक व्यक्ति के जीवन की मजबूरी और परिस्थिति ही उसे समझौता करना सीखा देती है और कहानी में रजनीकांत इसका ज्वलंत उदहारण है l रजनीकांत मन-ही-मन सोचता है कि आखिर उसके साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है? उसके मित्र महेश, नयन, प्रफुल्ल और महेन्द्र भी तो उसकी तरह ही भारत से आकर लंदन में विवाह करके बस गए हैं परन्तु 'क्यों वही उलझनों के धागों में फंसा रहता है ? इन्हीं अनसुलझे प्रश्नों का जवाब न मिलने पर रजनीकांत भीतर-ही-भीतर कचोटता रहता है l उसके जीवन की विडम्बना है कि वह अपने भीतर के इस दर्द को किसी के सामने प्रकट भी नहीं कर पाता l वह अपने इस दर्द भरे जीवन का दोषी किसी और को नहीं बल्कि स्वयं को और परिस्थितियों को ही मानता है, “वह किसी को भी दोष नहीं दे पाता l ......बस हालात.....!” सिर्फ अच्छा जीवन जीने की चाह में ये रास्ता उसने ही तो चुना था और जिसका परिणाम आज उसकी आँखों के सामने था l हालात का मारा रजनीकांत अपने पिता की मृत्यु पर भी गाँव नहीं जा पाता l जैसे शुरुआत में कही बहन की बात सच होने लगी थी ,“ देख लीजिएगा ,एक बार वहाँ पहुँच गया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखेगा l ” धीरे-धीरे परिस्थितियाँ जैसे रजनीकांत पर हावी होने लगीं थी l वह चाहकर भी प्रतिरोध नहीं कर पाता था l यह कटु तथ्य है कि कभी परिस्थितियाँ मनुष्य के अनुसार नहीं बदलतीं बल्कि मनुष्य परिस्थितियों के अनुसार अपने को बदलता है l अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए रजनीकांत शराब का सहारा लेने लगता है ,“ गाँव में कहाँ शराब पीता था ,वहाँ तो बाथी ,बापूजी थे.वहाँ तो शराब के बारे में सोचना भी पाप था, वहाँ तो छाछ पीता था,या फिर चाय l समय और स्थान के साथ-साथ पेय भी बदल जाते हैं,और पीने वाले भी l ”
रजनीकांत को शारीरिक रूप से गाँव जाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता लेकिन वह अकेलापन कचोटने पर और गाँव की मिट्टी की सुगंध, सरसों के पीले फूलों व खेतों की याद आने पर ख्वाबों द्वारा ही अपने वतन की सैर कर आता  है, जहाँ वह सब कुछ देखकर महूसस करता है l उसकी माँ उसे पत्र में पैसे भेजने को कहती है ताकि घर की जरूरतों को पूरा किया जा सके l चूकिं रजनीकांत निशा की तानाशाही का गुलाम बन चुका होता है इसलिए वह ड़रते हुए माँ को पैसे भेजने की बात निशा को बताता है ,परन्तु निशा पैसे भेजने के लिए मना कर देती है क्योंकि ,“ उसके अनुसार उनका परिवार तो बस उन तीनों को लेकर ही है l ” एक बार फिर से परिस्थिति से हारकर रजनीकांत पैसे न भेजकर अपने पुत्र-कर्तव्य निभाने की चाह को मन में ही दबा लेता है l वह जानता है कि निशा से बहस करने पर भी वह अपनी बात नहीं मनवा पाएगा l हर एक परिस्थिति से तो जैसे रजनीकांत ने सहजता से समझौता करना सीख लिया था l उसके मन में यह बात घर कर गई थी कि जिस लक्ष्य को लेकर वह लंदन आया था वह तो धरा का धरा ही रह गया l उसका मन बगावत करने को कहता था पर दिमाग साथ नहीं दे पाता था l कभी-कभी वह ऐसा संकल्प लेता ,“ मैं निशा को तलाक दे दूँगा परन्तु जीवन के लक्ष्य की तरह ही संकल्प भी बिखर जाता l
कहानी का अंत अत्यंत सम्वेदनशील मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है l अब रजनीकांत पर पत्नी और परिस्थिति की तरह उसकी अंतरआत्मा भी हावी हो जाती है l उसकी अंतरआत्मा की आवाज उसे कहती है ,“ रजनीकांत ,तुम कुछ नहीं करोंगे,न तो तुम अपनी पत्नी को छोड़ोगे और न यह देश-तुम और तुम्हारे दोस्त यह जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो l” कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा जी के द्वारा रजनीकांत के जीवन के यथार्थ को सम्वेदनात्मक धरातल पर प्रस्तुत किया है l रजनीकांत पर परिस्थितियाँ इस कदर हावी हो जाती हैं कि वह कठपुतली की तरह विवश होकर पराश्रित जीवन व्यतीत करता है l कहानी में अजनबीपन,अकेलापन,संत्रास,कुण्ठा आदि जैसे मार्मिक भावों को इस तरह से रूपायित किया गया है कि स्याही से लिखे अक्षर जीवंत होकर सशक्त भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति देते चले जाते हैं l
अब तक  हिन्दी-कहानी के क्षेत्र में नारी-विमर्श के माध्यम से नारी-जीवन में व्याप्त शोषण,मानसिक यातना,परम्परामुक्ति ,पितृसत्तात्मक विद्रोह संघर्ष, अस्मिता एवं अस्तित्व की लड़ाई व नारी-सशक्तीकरण की बात की जाती रही है l परन्तु तेजेंद्र शर्मा जी की कहानी अभिशप्त के माध्यम से उस पुरुष-वर्ग की मानसिक यातना का मार्मिक वर्णन किया गया है जो चाहकर भी अपनी पितृॠण से मुक्त होने की आंकाक्षा रखते हुए भी नारी -आधिपत्य  को स्वीकार कर लेता है और स्वयं को नियति के अधीन कर अपना समग्र जीवन चिन्तन के ताने-बाने में व्यर्थ ही गुजारने को मजबूर हो जाता है l रजनीकांत अपनी व्यक्तिगत आँकाक्षाओं को प्राथमिकता न देकर अपने गृहस्थ जीवन की बलिवेदी पर अपना जीवन न्यौछावर कर देता है l रजनीकांत अपनी पत्नी की प्रत्येक इच्छा की पूर्ति करके उसका पग-पग पर साथ देता है परन्तु निशा उसको तिरस्कृत करने में ही अपना अहम् समझती है l
रजनीकांत के माध्यम से एक प्रवासी भारतीय के उपेक्षित जीवन को रेखांकित किया गया है कि किस प्रकार वह विदेशी पृष्ठभूमि पर असामंजस्य स्थिति का सामना करता है जिससे वह मानसिक विकार से आक्रान्त भी होता है l परिणामस्वरूप वह अपने शरीर तथा मन को अमानुषिक यंत्रणाओं को सहने का अभ्यस्त बना लेता है , जहाँ निशा द्वारा रजनीकांत के विचारों के फ़ड़फ़ड़ाते पँखों को भी कतर दिया जाता है l रजनीकांत मूलतः भारतीय है उसके सँस्कारों में वैवाहिक संस्था के प्रति अटूट आस्था है कि वह चाहकर भी उसे तोड़ नहीं पाता l उसके जीवन में स्वाभिमान की भावना का उदय होता है परन्तु वह कायर और भीरु बनकर अपने आत्मसम्मान को स्वयं ही छिन-बिन कर देता है l कहानी में पति-पत्नी के विचारों में प्रतिस्पर्धा की भावना बखूबी नजर आती है परन्तु वह कानूनी कटघरे में न जाकर घर की चारदीवारी के अंदर ही दम तोड़ती रहती है l
भारतीय परम्परा के अनुसार विवाह को दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच एक पारस्परिक माधुर्य सम्बन्ध के रूप में स्थापित किया जाता है और यदि यह सम्बन्ध किसी एक को भी अपेक्षित सुख नहीं दे पाता तो सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया जाता है परन्तु रजनीकांत इसका पर्याय नहीं है बल्कि वह इस परिपाटी को ढ़ोता चला जाता है l जहाँ उसका समस्त जीवन दुःख व अभाव की कहानी ही बन जाता है l उसके जीवन की यह त्रासदी है कि गुजराती माध्यम से बी..करके भी वह भारत में नौकरी से वंचित रह जाता है , यहाँ तक कि लंदन  में भी वह बंधुआ मजदूर बनकर जीवनयापन करता है l इससे अच्छा तो यही होता कि वह अपने ही देश में कोई छोटा-मोटा काम करके अपने माता-पिता की सेवा करता और अपनी प्रेयसी का प्यार पाकर स्वाभिमानी जीवन व्यतीत करता l
कहानी में निशा एक ऐसा चरित्र है जो पति से भिन्न अपना अलग अस्तित्व स्थापित करती है l उसे पति के अहं के सम्मुख अपना अहं भाव अधिक प्रिय है l वह किसी भी स्थिति में स्वयं अपराजित नहीं होना चाहती और उसमें तार्किक शक्ति इतनी प्रबल है कि वह पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था के हर फन्दे को काटने का सामर्थ्य रखती है l निशा स्वयं को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में घोषित करने की दृढ़ता अपनाती है, जहाँ वह अपने ही पति को मानसिक रूप से प्रताड़ित कर उसका भावनात्मक शोषण करती है l अगर देखा जाए तो कहानी पुरुष-विमर्शका सशक्त उदाहरण है l 
यह सत्य है कि मानव-संरचना में नारी-पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तथा दोनों ही समरसतापूर्ण व्यवहार से अपने वैवाहिक व पारिवारिक जीवन की नीव को मजबूत बनाते हैं, किंतु तेजेंद्र शर्मा जी की इस कहानी में रजनीकांत अपने ही बलबूते पर वैवाहिक सम्बन्धों को कायम रखने की कोशिश करता रहता है l इस कहानी के माध्यम से कहानीकार ने पुरुष मन के भीतर आर्थिक स्वावलम्बन, अधिकार-चेतना, व्यक्तित्व की महत्ता व स्वतंत्र जीवनदृष्टि आदि जैसी भावनाओं को प्राप्त न कर पाने की टीस को प्रस्तुत कर पुरुष-विमर्श को एक नया आयाम दिया है l
अब बात कहानी में प्रयुक्त भाषाशैली की करते हैं. कहानीकार ने अपनी भाषा में गूढ़ और क्लिष्ट शब्दों के स्थान पर सरल, सुबोध, आम बोलचाल और रोजमर्रा की भाषा का प्रयोग करके पाठक-मन को प्रभावित किया है l
कहानी में प्रतीकों, बिम्बों, संकेतों, चिन्तन-प्रधान, दृश्यात्मक, पात्रानुकूल व प्रसंगानुकूल भाषा और शैलियों के अन्तर्गत वर्णनात्मक, पूर्वदीप्ति, संवादात्मक वार्तालाप ,पत्र शैली आदि का प्रयोग भाषा के सौंदर्य की अभिवृद्धि करने तथा स्वाभाविकता प्रदान करने में सहायक सिद्ध हुआ है l  कहानी का शीर्षक प्रतीकात्मक और सटीक  है ,क्योंकि रजनीकांत कहानी में शुरू से अंत तक भावग्रस्त जीवन व्यतीत करने को अपनी नियति मानकर अभिशप्त हो जाता है l कहानीकार ने पूर्वदीप्ति शैली (फ्लैश बैक ) के माध्यम से रजनीकांत नायक के जीवन की व्यथा को बखूबी प्रस्तुत किया है l अभिव्यक्ति और अनुभूति दोनों ही स्तरों पर कहानी अमिट छाप छोड़ती है l

प्यारे मैम

अरु मैम ,प्यारे मैम
हम सबके न्यारे मैम
हिन्दी की पाठशाला में अच्छी-अच्छी बातें सिखाते
हिन्दी की ज्ञान देकर गुरु का फर्ज निभाते
कमजोर विद्यार्थियों को आगे लाते
... 'बढ़ते रहो आगे 'ये सबक सिखाते
समस्याओं का निदान कर निजात पाते
दिन कैसे बीते हँसते-हँसाते
याद आँएगे वे दिन और बीती बातें
ईश्वर से है यही दुआ हमारी
अरु मैम रहे सदा हँसते-मुस्कुराते

--प्रीत अरोड़ा

Monday 16 April 2012

हमारा मंच

भारत की प्रथम महिलाएं


01. रज़िया सुल्तान (प्रथम साम्राज्ञी)
02. रानी चेनम्मा (प्रथम वीरांगना)
03. सावित्री बाई फुले (प्रथम शिक्षिका)
04. प्रतिभा पाटिल (प्रथम -नागरिक)
... 05. इंदिरा गांधी (प्रथम प्रधानमंत्री)
06. कल्पना चावला उर्फ आकाशकन्या (प्रथम अंतरिक्षयात्री)
07. मदर टेरेसा (प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता)
08. आनंदी बाई जोशी (प्रथम डाॅक्टर)
09. पदम्श्री बच्छेंद्री पाल (प्रथम पर्वतारोही)
10. किरण बेदी (प्रथम आई.पी.एस.)
11. एस.एस. सुब्बालक्ष्मी (संगीत क्षेत्र की प्रथम भारत रत्न संगीत साम्राज्ञी )
12. मादाम कामा (विदेश में भारतीय झंडा फहराने वाली प्रथम महिला)
13. संतोष यादव (एवरेस्ट की चोटी पर दो बार चढ़ने वाली दुनिया
की प्रथम पर्वतारोही)
14. सरला ठकराल (प्रथम पायलट)
15. कंचन चैधरी भट्टाचार्य (प्रथम डी.जी.पी)
16. पी.टी. उषा उर्फ उड़नपरी (प्रथम ओलंपिक धाविका)
17. आशापूर्णा देवी (प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त महिला)
18. विजय लक्ष्मी पंडित (प्रथम राजदूत एवं संयुक्त राष्ट्रसंघ की प्रथम अध्यक्ष)
19. डाॅ0 टेसी थामस उर्फ अग्नि पुत्री (प्रथम मिसाइल वुमेन)
20. सुष्मिता सेन (प्रथम मिस यूनिवर्स)
21. लीला सेठ (प्रथम मुख्य न्यायाधीश)
22. कार्नेलिया सोराबजी (प्रथम महिला वकील)
23. डाॅ0 पुनीता अरोहा (प्रथम लेफ्टिनेंट जनरल)
24. शबनम आरा बेगम (प्रथम क़ाज़ी)
25. सरोजिनी नायडू (प्रथम राज्यपाल)
26. सौम्या राघवन (सेंट्रल रेलवे की प्रथम जी.एम.)
27. आबाना मिस्त्री (प्रथम तबला-वादिका)
28. सानिया मिर्ज़ा (ग्रेंड स्लेम की दर्जाबन्दी में स्थान पाने वाली प्रथम महिला टेनिस सनसनी)
29. होमी व्यारवाला (प्रथम फोटो जर्नलिस्ट)
30. अरूणा आसफ़ अली (‘यूनियन जैक’ हटाकर तिरंगा फहराने वाली प्रथम महिला)
31. सुरेख यादव (प्रथम मोटर मैन)
32. मीरा कुमार (प्रथम लोकसभा अध्यक्ष)
33. करनम मल्लेश्वरी उर्फ आयरन गर्ल (ओलंपिक खेलों में पदक प्राप्त करने वाली
प्रथम खिलाड़ी)
34. शरण रानी बाकलीवाला (प्रथम सरोद-वादिका)
35. तीजन बाई (प्रथम पंडवाणी गायिका)
36. हर्षिनी कान्हेकर (प्रथम फ़ायर इंजीनियर)
37. राजकुमारी अमृत कौर (प्रथम केन्द्रीय मंत्री)
38. बानूबाई कोयाजी (परिवार नियोजन मुहिम की प्रथम प्रणेता)
39. अरूंधती राय (प्रथम बुकर पुरस्कार विजेता)
40. बुला चैधरी (समुद्र धुनी को तैरकर पार करने वाली प्रथम महिला)
41. रीता फ़ारिया (प्रथम मिस वल्र्ड)
42. डाॅ0 लक्ष्मी सहगल (महिला रेजीमेंट की प्रथम लेफ्टिनेंट कर्नल)
43. नैना लाल (भारत में विदेशी बैंक का कामकाज देखने वाली
प्रथम महिला)
44. मुक्ति श्रीवास्तव (प्रथम एयर-ट्रैफिक कंट्रोलर)
45. सौभद्रा (प्रथम महिला कैनोपी वैज्ञानिक)
46. कटकशम्मा (प्रथम बिशप)
47. रजनी पंडित (प्रथम जासूस)
48. दीना मेहता (प्रथम महिला स्टाॅक ब्रोकर)
49. सुनीता चैधरी (अपने रास्ते स्वयं बनाने वाली प्रथम महिला
आॅटो चालक)
50. अंजू बाॅबी जार्ज (विश्व स्तर पर पदक जीतने वाली प्रथम भारतीय
महिला एथलीट)
51. सिस्टर अल्फ़ोन्सा (प्रथम संत)

हम कितने जागरूक हैं

Saturday 14 April 2012

newswani.com पर लिया गया मेरा इन्टरव्यू

साथियो, हमारी खास सीरीज “आप हैं सिलेब्रिटी, क्या इंटरव्यू देंगे” के जबाव में आपके ढेरों ईमेल मिले. तो चलिए इस सिलसिले का आगाज करते हैं, चंड़ीगढ़ में रहने वाली डॉ प्रीति अरोड़ा से.
सुनिएः डॉ. प्रीत अरोड़ा से खास बातचीत.

http://newswani.com/?p=13209

newswani.com पर लिया गया मेरा इन्टरव्यू

http://newswani.com/?p=13209
साथियो, हमारी खास सीरीज “आप हैं सिलेब्रिटी, क्या इंटरव्यू देंगे” के जबाव में आपके ढेरों ईमेल मिले. तो चलिए इस सिलसिले का आगाज करते हैं, चंड़ीगढ़ में रहने वाली डॉ प्रीति अरोड़ा से.
सुनिएः डॉ. प्रीत अरोड़ा से खास बातचीत.

Sunday 8 April 2012

नारी सशक्तीकरण विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन

नजीबाबाद। नारी सशक्तीकरण विषय को लेकर परिलेख प्रकाशन एवं मनमीत की ओर से विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया । जिसका सफलतापूर्वक संचालन करते हुए माला कौशिक ने महिलाओं की स्थिति पर अपने विचार भी रखे ।
कोतवाली मार्ग पर स्थित परिलेख प्रकाशन और मनमीत के प्रांगण में नारी सशक्तीकरण पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया । जिसमें नगर की प्रतिष्ठित महिलाओं ने अपने आजस्वी विचार रखे। इसके अतिरिक्त देश के अन्य राज्यों बिहार, मध्यप्रदेश, असम, चण्डीगढ़ आदि से भी महिलाओं ने मोबाइल के माध्यम से अपने विचार रखे। इसी कार्यक्रम में मनमीत और परिलेख परिवार ने यह घोषणा की कि हम स्त्री और पुरुष का भेद मिटाने के लिये सर्वप्रथम यह कार्य करेंगे कि महिला के नाम से पहले श्रीमति के स्थान पर श्री शब्द का प्रयोग करेंगे। आजमगढ़ से मोबाइल पर अपने वक्तव्य में अरविन्द सिंह ने कहा- “ जब तक हम व्यवहारिक रूप से महिलाओं को बराबरी का सम्मान नहीं देंगे तब तक नारी सशक्तीकरण मात्र आयोजनों तक ही सीमित रह जायेगा, इसीलिये महिलाओं के नाम से पूर्व श्रीमति के स्थान पर श्री शब्द का प्रयोग ही उचित होगा ।”
कार्यक्रम में डॉ. रजनी शर्मा ने अपने सम्बोधन में कहा कि नारी को अपनी शक्ति पहचान कर अपने घर से ही सशक्त होने की ओर कदम बढाना होगा । इस अवसर पर उन्होंने काव्य पाठ भी किया। नगर की प्रसिद्ध समाजसेवी और शिक्षिका आशा रजा ने कहा कि महिला सृष्टि की जननी है । समाज के विकास में उसकी बराबर की भागीदारी है । ऐसे में महिलाओं के लिये एक ही दिन क्यों? उन्होंने कहा कि महिलाओं को प्रतिदिन सम्मान मिलना चाहिये । महिलाओं को स्वयं के प्रति चिन्तित होना होगा और दहेज जैसी विकृतियों से उसे बचना चाहिये । चण्डीगढ़ से ड़ॉ प्रीत अरोड़ा ने मोबाइल पर वक्तव्य देते हुए कहा कि समाज में नारी दो रूपों में देखी जाती है एक शोषित के रूप में दूसरे सशक्त के रूप में । सशक्त महिलाओं को चाहिये कि वो निर्बल महिलाओं की सहायता करें और उन्हें उनके अधिकार दिलायें । नगर की चिरपरिचित और प्रसिद्ध समाजसेवी महिला माला कौशिक ने कहा कि हमें एकजुट होकर समाज के लिये कार्य करना चाहिये। पुरुष को दोष न देते हुए हमें अपनी सीमाओं का ध्यान रखते हुए ही सशक्त होना होगा। पुरुष के बिना नारी सशक्तीकरण सम्भव नहीं है । दूसरी बात यह कि फैशन के नाम पर जो हो रहा है ,वह किसी भी नारी के लिये शर्म की बात है । इन्दु त्यागी ने कहा कि नारी को सशक्त होने के लिये अपने घर से ही पहल करनी होगी ।
श्रेया पब्लिक स्कूल की प्रधानाचार्या रेणु शर्मा ने महिलाओं से आत्ममंथन करने की बात करते हुए कहा कि हमें अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति जागरुक होना ही होगा । सिल्चर, आसाम से ड़ॉ शुभदा पाण्डेय ने मोबाइल पर सम्बोधित करते हुए कहा कि महिलाओं को अपनी स्वतंत्रता पर चिन्तन करते हुए सोचना चाहिये कि वो स्वतंत्रता के नाम पर सोच क्या रही हैं और जा कहां रही हैं? महिला अस्मिता की रक्षा उन्हें स्वयं ही करनी होगी । नगरपालिका सभासद सुनीता प्रजापती ने नारी से अपने अधिकारों के प्रति जाग्रत होने की अपील की । महिला चिन्तक और राजनीतिज्ञ सुमन वर्मा ने कहा कि हम स्वयं ही अपनी दुर्दशा के लिये जिम्मेदार हैं । भोपाल, मध्यप्रदेश से धरा निखिल दवे ने मोबाईल पर वक्तव्य में कहा कि आज नारी बहुत आगे जा रही है । जो लोग यह सोचते हैं कि नारी अबला है ,उन्हें इस धोखे से बाहर आ जाना चाहिये । समाजसेवी एवं चिन्तक इन्द्राणी गोयल ने कहा कि हमारे इतिहास में नारी की शक्ति के अनेकों उदाहरण भरे हुए हैं। हमें अपनी सीमाओं में रहकर विकास करना चाहिये। हमें अहद कर लेनी चाहिये कि हम भ्रूण हत्या नहीं होने देंगी और हमें किसी भी कीमत पर कन्या हत्या में सहभागी नहीं होना है । पूर्व राज्यमंत्री शशिबाला राजपूत ने अपने वक्तव्य में कहा कि महिलाओं को अभी और आगे निकलना है । हमें प्रेरणा बनकर काम करना है। नारी शक्ति सदा से ही पहचानी गयी है, हमें भी शक्ति बनना है । सपा नेत्री और समाजसेवी महिला आयशा सिद्दीकि ने कहा कि हमें घरों को टूटने से बचाना है । हमें समाज में एकरूपता लाने के लिये पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करना चाहिये। इस अवसर पर प्रसिद्ध लेखक के.एस.तूफान ने भी अपनी तूफानी अन्दाज में सम्बोधन किया । कार्यक्रम के समापन की घोषणा करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार भोलानाथ त्यागी ने सभी का आभार व्यक्त किया ।
इस अवसर पर अमन त्यागी, भूपेन्द्र सिंह, दीपक वालिया, सुनील शर्मा समीर, विजेन्द्र सिंह, करूण कुमार पाल, नैपाल सिंह, अजय शर्मा मंजू त्यागी, रशिम त्यागी, अक्षि त्यागी आदि ने कार्यक्रम को सफल बनाने में सहयोग किया।

रिपोर्ट – डॉ. प्रीत अरोड़ा