Wednesday 30 May 2012

मेरे जीवन की सत्य घटना पर आधारित संस्मरण--जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है

 शक्ति से तात्पर्य है-बल,ऊर्जा अथवा ताकत Iशक्ति के अनेक रूप हैं जैसे-प्राकृतिक शक्ति,शारीरिक,मानसिक , बौद्धिक व आध्यात्मिक शक्ति इत्यादि I इनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्राकृतिक शक्ति मानी गई है I प्राकृतिक शक्ति भी दो प्रकार की होती है-एक बाह्य शक्ति जोकि प्रकृति प्रदत्त होती है जैसे पहाड़,पेड़-पौधों,सूरज,चाँद,नदियाँ आदि.और दूसरी शक्ति आन्तरिक शक्ति है जो मनुष्य के अन्दर उसकी आत्मा में व्याप्त होती है जिसे हम इच्छा शक्ति भी कहते हैं I शक्ति उस ऊर्जा का नाम है जिससे मनुष्य प्रोत्साहित होकर उन्नति के उस मार्ग को प्रशस्त कर सकता है ,जहाँ पहुँचने की उसने कभी कल्पना भी नहीं की होती I शक्ति उसे प्ररेणा देती है तथा उसी शक्ति के माध्यम से ही मुर्दा शरीर में भी जिजीविषा उत्पन्न हो जाती है Iआत्मिक शक्ति किसी भी व्यक्ति के लिए जीवन में आगे बढ़ने और उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँचने के लिए अनिवार्य है I मैं आज अपने जीवन की एक वास्तविक घटना को प्रस्तुत कर रही हूँ जो आत्मशक्ति की जिन्दा मिसाल हैI
                                                   बात तब की है जब मैं बी.ए के प्रथम वर्ष में थी तो मेरे जवान भाई की आकस्मिक मृत्यु होने के कारण हमारे परिवार में ऐसी निराशाजनक स्थिति उत्पन्न हो गई जिससे हमें ऐसा प्रतीत होने लगा कि अब हमारे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है I मानसिक तनाव के कारण मैंने अपनी पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी I मुझे ऐसा लगने लगा कि यदि जीवन का अंत मृत्यु ही है तो फिर जीवन में कुछ कार्य करने और आगे बढ़नें का क्या महत्व है ?मेरी माँ जोकि आध्यत्मिक प्रवृत्ति की हैं तथा उनकी प्रभु में अटूट आस्था व विश्वास है I उनके विचारानुसार वह स्वयं को कभी भी अकेला महसूस नहीं करती I उनका कहना है कि एक आन्तरिक शक्ति हमेशा ही उनका पथ-प्रदर्शन करती है और उसी आत्मिक शक्ति के बल पर उन्होंने इस असहनीय दुख को भगवान की यही मर्जी है सोचकर सहन कर लिया I जहाँ मुझे अपनी माँ का सम्बल बनकर उनको साँत्वना देनी चाहिए थी वहाँ मेरी माँ ने मुझे निराशा के अन्धकारमयी गर्त से उबारा I
                       माँ ने मुझे बड़े प्यार से समझाते हुए कहा ,“बेटी मैं मानती हूँ कि हमारे परिवार पर बहुत बड़ा कहर टूटा है Iयह घाव धीरे-धीरे ही भरेगा I तुम्हारे भाई तो वो बाद में था पहले मेरा बेटा था I पर प्रकृति के आगे किसका जोर चलता है I उठो,अपने भीतर की आत्मशक्ति जगाओ और अपने पैरों पर खड़े होकर अपनी पढ़ाई पूरी करो,क्योंकि अब तुम ही हमारा सहारा हो और बेटा भी I”माँ की इन बातों का मुझ पर कोई असर नहीं हो रहा था क्योंकि कहीं न कहीं मेरे मन पर निराशा का साया पूरी तरह हावी हो चुका था I मेरी माँ ने मेरा कालेज में दाखिला भी करवा दिया परन्तु मैं कालेज जाने को तैयार न हुई.तो माँ ने सोचा कि क्यों न मैं इसे कहीं बाहर घुमाने के लिए ले जाऊँ.ऐसा सोचकर वे मुझे बाहर घुमाने के लिए बस स्टाप पर ले गईं I बस आने में अभी देरी थी I तभी वहाँ एक लड़की अपनी व्हील  चैयर पर बैठकर अकेली आई.वह भी हमारे साथ बस की इंतजार करने लगी I मैंने देखा कि उस लड़की के चेहरे पर एक ओज विद्यामान था Iजैसे ही बस आई वह फूर्ति से अपनी बैसाखी के सहारे व्हील चैयर को बंद करके बगल में दबाये बस में चढ़ गई.तीनों सीटों वाली सीट पर खिड़की के साथ वह लड़की बैठे गई और उसके साथ ही मेरी माँ और मैं भी बैठ गई.वह लड़की हल्का-हल्का कुछ गुनगुना रही थी जिससे उसका उल्लास प्रकट हो रहा था Iमौका मिलते ही मेरी माँ ने उससे बातचीत शुरू कर दी I उसने अपना नाम दुर्गा बताया और उसकी उम्र लगभग चौबीस वर्ष थी I उसने बताया कि वह एक मध्यवर्गीय परिवार से सम्बन्ध रखती है और उसके पिता जी का देहांत हो चुका है I उसकी माँ घरेलू व अशिक्षित महिला है I उसके दो भाई-बहन भी हैं I इसलिए उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए वह स्कूल में संगीत का अध्यापन करती है और यही नहीं वह अपनी शैक्षणिक योग्यता को बढ़ाने के लिए स्वयं भी आगे पढ़ रही है I वह अपने भाई-बहन को पढ़ाकर उनका भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहती है I दुर्गा ने बताया कि उसने अपनी छोटी-सी उम्र में ही बहुत मुश्किलों का सामना किया है परन्तु उसने कभी भी हार नहीं मानी I आज वह किसी पर पराश्रित नहीं है और न ही किसी की दया की मोहताज़ है I अपितु वह कुछ बनकर दूसरों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहती है I यह सुन माँ दुर्गा से कहने लगी, “बेटी तुम इतना सबकुछ कैसे कर लेती हो ?’’
एक अनोखे अन्दाज़ से मुस्कराते हुए दुर्गा ने कहा, “आँटी जी यह तो बस प्रभु की कृपा है क्योंकि जहाँ चाह वहाँ राह I आपको एक शेर सुनाती हूँ-जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है,मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं .” मैं चुपचाप माँ और दुर्गा की बातें सुन रही थी I दुर्गा के विचारों को सुनकर मुझे मन-ही-मन ग्लानि महसूस होने लगी कि दुर्गा शारीरिक रूप से अस्वस्थ होने पर भी मानसिक रूप से कितनी शक्तिशाली है.उसके जीवन का एक उद्देश्य है I उसकी बातों से प्रेरित होकर उस दिन मैंने भी एक प्रण लिया कि दुर्गा की तरह मैं भी अपने जीवन में कुछ बनकर दिखाऊँगी I बस फिर क्या था मैंने बी..पूरी की और एम.ए हिन्दी में एड़मिशन लिया I यही नहीं मैंने एम..हिन्दी के दोनों वर्षों में पँजाब विश्वविद्यालय में 72 प्रतिशत अंकों के साथ प्रथम स्थान भी प्राप्त किया.फलस्वरूप टेलीविजन के चैनल पँजाब टुडे के सीरियल (कुड़ीए मार उड़ारी) के लिए मेरा इन्टरव्यू भी लिया गया,जिससे मुझे एक नई पहचान मिली I अपनी माँ की प्ररेणा और दुर्गा की सीख से ही आज मैंने हिन्दी में पी.एच.ड़ी भी पूरी कर ली है I
                  अब उच्च शिक्षा प्राप्त करके मैंने यह महसूस किया कि मेरे विचार मेरे मन के भीतर हलचल मचा रहें हैं और वे अभिव्यक्ति पाना चाहते हैं I इसलिए मैंने अपनी भावनाओं को एक लेख के रूप में पिरोकर एक नामी पत्रिका को भेजना चाहा पर यहाँ भी मेरे धैर्य और शक्ति की परीक्षा ली गई I पत्रिका की सम्पादिका से मैंने फोन पर बात की और मैंने कहा, “मैं चाहती हूँ कि मैं अपना एक लेख आपकी पत्रिका के लिए भेजूँ .” इस पर सम्पादिका ने दो टूक उत्तर देते हुए कहा कि ,“ चाहने से क्या होता है I जीवन में हम सभी कुछ न कुछ चाहते हैं पर यह जरूरी नहीं कि हमारी हर चाहत पूरी हो I इसलिए हम आप जैसी नयी लेखिका को कोई मौका नहीं दे सकते I ”  सम्पादिका के ऐसे विचारों को सुन कर भी इस बार मेरे मन में कहीं निराशा नहीं आई,अपितु मैंने अन्य पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं को प्रकाशित कराने का भरसक प्रयास करती रही क्योंकि मैं यह जान चुकी थी कि असम्भव शब्द मूर्खों के शब्दकोश में ही होता है I फलस्वरूप मेरा प्रयास रँग लाया.आज मेरे लेख,कविताएँ,शोध-पत्र व साक्षात्कार इत्यादि कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहें हैं I आज मेरी भी एक पहचान है.इसलिए बहुत जरूरी है कि यदि व्यक्ति अपने भीतर की आत्मशक्ति को जागृत करें और दृढ़ निश्चय के साथ अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर हो,तो उसे समय तो लग सकता है लेकिन वह कभी असफल नहीं होगा I अंत में मैं यही कहना चाहूँगी कि जितने भी महान लेखक या महान व्यक्ति हुए हैं ,चाहे वे किसी भी क्षेत्र से ही सम्बन्ध रखते हो.उनका प्रतिभाशाली व्यक्तित्व उनके अदम्य साहस,धैर्य व आत्मशक्ति के ही परिणामस्वरूप होता है I किसी लेखक ने ठीक ही कहा है---
हम होंगे कामयाब,हम होंगे कामयाब,एक दिन
  हो-हो मन में है विश्वास,पूरा है विश्वास,
हम होंगे कामयाब एक दिन I” 

लेखिका----ड़ॉ प्रीत अरोड़ा

Saturday 26 May 2012

कोई उपन्यास स्त्रीवादी नहीं होता—-मृदुला गर्ग

मित्रों मृदुला गर्ग जी हिन्दी साहित्य की सुप्रसिद्ध लेखिका हैं.मेरा यह सौभाग्य है कि मैंने शोध कार्य (पी.एचडी ) भी मृदुला जी के कथा-साहित्य पर किया.प्रस्तुत है लेखिका मृदुला गर्ग जी से संक्षिप्त बातचीत..

हिन्दी की सुप्रसिद्ध एवं स्तम्भकार लेखिका मृदुला गर्ग जी का हिन्दी कथा-साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है.इनकी छवि हिन्दी-साहित्य में एक गम्भीर लेखिका की है.इन्होंने नारी-विमर्श,बाल-जीवन, सामाजिक सन्दर्भों और पर्यावरण आदि प्रत्येक विषय पर लेखन के माध्यम से सफलता हासिल की है. इनके कथा-साहित्य के अन्तर्गत उपन्यासों में उसके हिस्से की धूप चितकोबरा, कठगुलाब और कहानियों के अन्तर्गत कितनी कैदें,दुनिया का कायदा, हरी बिन्दी, ड़ैफोड़िल जल रहे हैं, मेरा, अवकाश इत्यादि बहुचर्चित हैं.प्रस्तुत है लेखिका मृदुला गर्ग के साथ ड़ा प्रीत अरोड़ा की विशेष बातचीत
(१) प्रश्न—आपके लेखन की शुरुआत कैसे और कब हुई और आपका प्रेरणा -स्त्रोत कौन है ?
(१) उत्तर–मेरे लेखन कि शुरुआत १९७१ में हुई . प्रेरणा स्रोत तो जीवन ही है. उसमें अनेक उतार चढाव देख़ें और अनेक विलक्षण व्यक्तियों से भेंट हुई.
(२) महिला लेखिकायों मे किस महिला -लेखिका से आप अत्यधिक प्रभावित हुई हैं और क्यों ?
(२) उत्तर–किसी महिला लेखक से विशेष रूप से प्रभावित नहीं हुई. मेरे पसंदीदा लेखक अधिकतर  पुरुष  रहे हैं. अगर स्त्री का नाम लेना ज़रूरी हो तो अंग्रेजी की टोनी मोरीसन और उर्दू की कुरुत्तुलीन हैदर मुझे बहुत प्रभावित करती रही हैं.  इसलिए कि  उनका सन्दर्भ क्षेत्र अत्यंत व्यापक है और वे किसी वाद या विचार धारा  से बंधी नहीं हैं. टोनी  मोरीसन ने विशेष रूप से काले अमरीकी लोगों के बारे में लिखा अवश्य पर उनका लेखन मनुष्य  मात्र पर लागू होता है.  उनकी संवेदना का क्षेत्र निस्सीम है.  कुरुत्तुलीन हैदर की इतिहास दृष्टि अदृभुतहै. वैसी इतिहास दृष्टि किसी पश्चिमी लेखक या अन्य भारतीय पुरुष लेखकों में नहीं मिलती.
(३)प्रश्न–सही अर्थो मे नारी की मुक्ति किससे है ?
(३)उत्तर–व्यवस्था के भ्रष्ट स्वरूप  और रूढ़ अंध विश्वासों से.
  (४)प्रश्न–स्त्री –सशक्तीकरण  की सही दिशा कौन -सी है?
(४)उत्तर–शिक्षा और रोज़गार. आर्थिक आत्म निर्भरता और विवेक के इस्तेमाल का साहस.
(५)’प्रश्न–कठगुलाब ‘उपन्यास आपका सर्वाधिक चर्चित उपन्यास है .इस उपन्यास में आपको सबसे अधिक प्रिय नारी -पात्र कौन -सा है ?और क्यों ?
(५)उत्तर—-मरियान. क्योंकि वह अमरीकी होते हुए भी भारतीय स्त्री के करीब है. उसमें साहस है की वह उन अमरीकी मूल्यों को नकारे जिन्हें वहां सर्वअधिक मान्यता प्राप्त है. वह लम्बे संघर्ष के बाद अपनी अस्मिता की पहचान करती है और पूर्वाग्रहों का त्याग करके, लेखन करने का साहस जुटा लेती  है. वह  सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में खुद को स्थापित नहीं करती बल्कि अपने भीतर अकेले में खुद को पा लेती है.
 (६)प्रश्न—-’मिलजुल मन ‘उपन्यास का शीर्षक किस भावना का प्रतीक है ?
(६)उत्तर—मन का अर्थ अत्यंत बहुआयामी है. वह दिल भी है, मस्तिष्क भी. चेतना और  कल्पना संसार भी. अस्तित्व भी वही है.  मन के साथ मिल कर जो काम कर सके या  जो अपने मन को पहचान ले वही अपने अस्तित्व को भी सही अर्थ में पा सकता है.
(७)’प्रश्न–मिलजुल मन  ’उपन्यास मे मोगरा और गुल क्या वास्तविक जीवन के नारी-पात्र हैं अथवा काल्पनिक ?
(७)उत्तर- -पात्र वास्तविक जीवन से लिए हैं पर उनका जीवन वृत्त पूरा का पूरा वैसे नहीं चित्रित किया गया जैसा अंत तक घटित हुआ. उन्हें औपन्यासिक बना कर पेश किया गया है.उन्ही घटनाओं  को लिया है जो कथानक के लिए ज़रूरी या रसपूर्ण  थीं .
(८)प्रश्न–क्या ‘मिलजुल मन ‘उपन्यास एक स्त्रीवादी उपन्यास माना जा सकता है ?
(८)उत्तर–मेरे हिसाब से कोई उपन्यास स्त्रीवादी नहीं होता. उसमें श्लेष व् अनेकार्थता होती है. उसके अनेक पाठ हो सकते हैं. मिलजुल मन तो आंतरिक जीवन में औरत मर्द में अंतर न करके दोनों को अभिव्यंजित करता है. और देश के नव स्वाधीन स्वरूप की व्यंजन भी उसी तरह करता है कि वह मानवीय है, किसी एक गुट, वाद या लिंग का पक्षधर नहीं .
(९)प्रश्न–आज ऐसा माना जा रहा है के हिंदी भाषा का अस्तित्व संकट मे है ?क्या आप इस बात से सहमत हैं ?
(९)उत्तर–हाँ. हिंदी साहित्य का पठन युवा मध्यम वर्ग में कम होता जा रहा है. पढना लिखना सीखते ही लोग अंग्रेज़ी की लोकप्रिय और सतही पुस्तक पढना पसंद करने लगते हैं.अखबार भी अंग्रेजी का पढ़ा जाता है, संगोष्ठीअंग्रेजी में होती है. हाल में पुरानी दिल्ली की तहजीब पर  IIC में जलसा हुआ . वहां भी किन्ही गणमान्य व्यक्ति ने  आरम्भिक भाषण अंग्रेजी में दे कर आमंत्रित लोगों का स्वागत किया  जो बहुत ही हास्यास्पद  था. इस सब से लगता है हिंदी का अस्तित्व अब पढ़े लिखे लोगों के नहीं नव साक्षर लोगों के हाथों में है.
(१०)प्रश्न-भविष्य मे आपकी क्या योजनाये हैं ?
उत्तर-पता नहीं. भविष्य के लिए योजना नहीं बनाती. जो जब मुमकिन हो जाए कर लेती हूँ.
(१०)प्रश्न–आप नवोदित लेखको को क्या सन्देश देना चाहती हैं ?
उत्तर–वाद या विचारधारा पर निर्भर न रह कर अपने विवेक पर आस्था रख कर लेखन करें और संभव हो तो वैसे ही जिएँ भी.


साक्षात्कारकर्ता———-ड़ॉ प्रीत अरोड़ा
 

Tuesday 22 May 2012

तुम हो मेरे लिये कुछ खास










तुम हो मेरे लिए कुछ खास
ये है मेरा विश्वास
तुम हो एक सुखद एहसास
मन के कुछ आसपास
तुम हो मेरा मान अभिमान
तुम पर हो जाऊँ कुर्बान
तुम मेरी आँखों के नूर
कभी न जाना मुझसे दूर
तुम मेरे पौधों के माली
सदा करते रहना रखवाली
तुम हो मेरे जीवनदाता
तुम हो मेरे भाग्य विधाता
जन्म-जन्म का साथ हमारा
कभी न छूटे साथ तुम्हारा
अगर कहीं हो जाए भूल
माफ कर देना मुझे हजूर
तुम मेरे दीपक मैं तेरी दिवाली
जीवन में सदा रहे खुशहाली

ड़ा प्रीत अरोड़ा

मनमीत पत्रिका

Saturday 19 May 2012

आ सखी,दो बातें करें

प्रिय सखियों,आ सखी के इस मंच पर मुझे बहुत सुखद एहसास हुआ .मैं यहाँ आकर बहुत कुछ सीखती हूँ. मैं किन शब्दों में आ सखी का आभार व्यक्त करुँ कि उन्होंने एक सुंदर समूह की सृजना की .एक स्वरचित कविता आ सखी को समर्पित करने जा रही हूँ..जो कि नीचे लिखी है.चूंकि मेरे जीवन के अमूल्य
पल है जिसे संजोकर रखना चाहती हूँ...तो लीजिए एक कविता आ सखी के नाम......

आ सखी,दो बातें करें

आ सखी,आ सखी
दो बातें करें
सुख-दुख अपने साँझे करें
अपनेपन के इस भाव से
प्यार की इक नई दुनिया बनेगी
दुःख -दर्द न होगा जिसमें
बस हँसते-खिलते चेहरे होंगे
न कोई बैरी,नहीं बेगाना
हमनें सबको अपना माना
प्यार की यह पावन धारा
निश्छल बहती जाएगी
स्वाति नक्षत्र की मिठ्ठी बूँदें
सीपी बन मोती लुटाएँगीं
आ सखी,आ सखी
दो बातें करें
मिलजुल कर जब बात करेंगें
सम्स्याओं का निदान करेंगें
हरा-भरा संसार होगा
चिन्ता छोड़ों ,नाता जोड़ों
खुशियों से तुम मुख न मोड़ों
जब हम होंगें साथ-साथ
प्यार बटेगा हाथों-हाथ

ड़ा प्रीत अरोड़ा

Friday 18 May 2012

संस्कारों की जीत

                                        
       पंछी जैसे आजाद उड़ने की ख्वाहिश
                   पर
       बेड़ियाँ हैं पैरों में पितृसत्तात्मक समाज की
        चाह कर भी वो नहीं उड़ पाती
         पंख फड़फड़ाते और आँख भर आती
                मन
        कहता उसका,बगावत करने को
                तभी
       गूँजने लगती कानों में माँ की शिक्षा
        और संस्कार देने लगते दुहाई
         ठण्डी आह भर कर
         पुनः कोशिश करती
         लड़ती अपने विचारों से
               आखिर
       जीत जाते संस्कार और हार जाती वो
      आदर्श समझाते और समझ जाती वो
      सीता,द्रौपदी को सम्मुख खड़ा पाकर
      गला घोट देती स्वयं अपने अरमानों का
                   पुनः
     एक बार फिर जूझ जाती दुगने उत्साह से
                  क्योंकि
        शायद यही है उसकी नियति

 ड़ा प्रीत अरोड़ा

Tuesday 15 May 2012

मदर्स ड़े 13 मई 2012 को मुझे अमर उजाला की ओर से सम्मानित किया गया



13 मई को मदर्स ड़े के उपलक्ष्य में अमर उजाला अखबार की ओर से एक प्रतियोगिता “ एक पैगाम माँ के नाम ” आयोजित की गई थी l जिसमें 700 कविताओं की एंट्री पहुँची,उसमें से  20 सर्वोत्तम कविताओं का चुनाव किया गया l और प्रतिभागियों को सम्मानित किया गया  जिसमें मुझे भी मेरी कविता माँ एक मधुर एहसास के लिए सम्मानित किया गया l यह कार्यक्रम जीरकपुर के कन्फर्ट बैंक्वेट हाल में किया गया l कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में चंड़ीगढ़ प्रशासक के एड़वाइजर के के शर्मा की पत्नी एनवी शर्मा शमिल हुईं,इसके साथ ही साथ अमर उजाला के कार्यकारी _संपादक उदय कुमार  ,फिल्म कलाकार ड़ा दीप्ति शर्मा और रिच एंड _न्यूट्रीशन खाना-खजाना एवं कुकरी एक्सपर्ट सरिता खुराना आदि ने भी कार्यक्रम में शिरकत की l प्रस्तुत है कार्यक्रम की  तस्वीर जिसमें मुझे सम्मानित किया जा रहा है l  

Sunday 13 May 2012

माँ


बाल्यावस्था में बालक जो शब्द सबसे पहले बोलता है वह है माँ और माँ अपने बच्चे के मुख से ये शब्द सुनने को आतुर रहती है.जैसे ही माँ शब्द बच्चे के मुख से निकलता है तो उस दिन जैसे उसे धरती पर स्वर्ग का एहसास हो जाता है क्योंकि स्त्री की पूर्णता माँ बनने से ही होती है.माँ अपने बच्चे के लिए एक नया जन्म लेने के कष्ट को भी हँस कर उठा लेती है.माँ और बच्चे का रिश्ता प्यार और आत्मीयता से भरा होता है .परन्तु आज बच्चे अपनी माँ के प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख होते जा रहे हैं.कारण आधुनिकता की दौड़ में इतनी हौड़ लगी है कि उनको अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए माँ की समझदारी वाली बातें फजूल लगती हैं  और वो जाने-अनजाने माँ का हृदय तक दुखा देते हैं.जबकि माँ की ड़ांट में भी प्यार ही छिपा होता है.इसलिए मेरा मानना है कि माँ का अहसास एक छायादार पेड़ की ठण्ड़क-सा है जो तपते हृदय पर मीठी –मीठी फुहार के समान बरसती है और एक सुखद अनुभव होता जिसे व्यक्त करने के लिए शब्द भी कम पड़ जाते हैं.मैं कभी भी अपनी माँ का हृदय न दुखाऊँ इसके लिए प्रयत्नशील रहूँ यही मेरी कामना है.आज मदर्स ड़े पर प्रस्तुत है मेरी एक कविता----


माँ - एक मधुर अहसास
मैं अकेली कहाँ ?      
कोई तो है
जो मुझे पग -पग पर समझाती है ,
कभी प्यार से
कभी फटकार से ,
निराशा के घनघोर अंधकार में ,
ज्योति की एक सुनहरी किरण ,
रास्ता दिखाती
पथ प्रदर्शन करती
मुस्कराती
ओझल हो जाती ,
पास न होकर भी
दिल के कितने करीब होती है
जब -जब भी तुम्हें पुकारा
तो पाया
एक मधुर अहसास ,
सुख -स्पंदन
प्यार का अथाह सागर ,
निश्छल प्यार
जो कहती ... मै दूर कहाँ हूँ तुमसे ?
तुम मेरा प्रतिविम्ब हो ,
उठो ,छोड़ो निराशा
और आगे बढ़ो ...
मेरी प्रेरणा ,मेरी मार्ग -दर्शक
और कोई नहीं
मेरी माँ ही हैं l
--ड़ा प्रीत अरोड़ा

Thursday 10 May 2012

आज के दैनिक भास्कर में प्रकाशित मेरे विचार (संस्कारों से बढ़कर कुछ नहीं )

संस्कारों से बढ़कर कुछ नहीं

भारतीय समाज के अन्तर्गत सभ्यता व संस्कृति की अमूल्य देन है हमारे संस्कार l संस्कार ,रीति-रिवाज,मूल्यों व मान्यताओं का ऐसा अनूठा सगंम है जिसे हमारे पू्र्वजों ने संजोकर रखा l परन्तु विड़म्बना यह है कि आधुनिक युग में हम अपने संस्कारों को भूलकर पैसा और शोहरत कमाने के चक्कर में पड़ गए हैं l यदि देखा जाएँ तो हमारे संस्कारों से बढ़कर कुछ मूल्यवान नहीं है l ये संस्कार ही हैं जो हमें मानवता का पाठ पढ़ाकर एक सम्वेदनशील व चरित्रवान व्यक्ति बनाते हैं l आज अगर समाज में अत्याचार ,लूटपाट,चोरी व ड़कैती बढ़ रही है तो उसका कारण संस्कारविहीन समाज का होना है l पर हमनें क्या कभी सोचा है कि संस्कारों को भूलकर जीवन जीना कहाँ तक सार्थक सिद्ध होगा ? इसलिए आज बहुत जरूरी है कि हम फिर से अपनी संस्कृति व सभ्यता रूपी धरोहर को समेटने के लिए उठ खड़े हो l
 ड़ा प्रीत अरोड़ा  

Monday 7 May 2012

७ मई रविन्द्र नाथ टैगोर जी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में


रविन्द्र नाथ टैगोर (रवीन्द्रनाथ ठाकुर, रोबिन्द्रोनाथ ठाकुर) (7 मई, 1861-7 अगस्त,1941) को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे बंगला के विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार एवं दार्शनिक हैं.भारत का राष्ट्र.गान जन गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं । वे साहित्य और समाज के युगदृष्टा,मार्गदर्शक व मसीहा बनें.टैगोर जी प्रकृति-प्रेमी थे प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर जी ने शांतिनिकेतन की स्थापना की । तो आइए शांतिनिकेतन के बारे में और अधिक जानकारी लेने के लिए आज मुलाकात करते हैं लेखिका जेन्नी शबनम जी से,जिन्होंने अपने जीवन का कुछ समय शांतिनिकेतन में बिताया. प्रस्तुत  है जेन्नी शबनम   से  डा. प्रीत अरोड़ा की बातचीत ......

1. प्रश्न - जेन्नी जी, लेखन कार्य में आपकी रूचि कब पैदा हुई? आपने लिखना कब से शुरू किया?
उत्तर -
लेखन कार्य में रूचि तो शायद बचपन में ही जागृत हुई. मेरे पिता भागलपुर विश्वविद्द्यालय में प्रोफेसर थे और मेरी माँ इंटर स्कूल में प्राचार्या थी. घर में लिखने-पढ़ने का माहौल था, तो शायद इससे ही लिखने की प्रेरणा मिली. बी.ए. में थी तब से लिखना शुरू किया. परन्तु जो भी लिखा वो सब डायरी में छुपा रहा. 1995 में कुछ दैनिक अखबार में मेरे कुछ लेख प्रकाशित हुए थे. 2005 में इमरोज़ जी से मिलने गई तब पहली बार उनसे मैंने अपनी कविताओं का जिक्र किया और उन्होंने मुझे अपनी रचनाओं को सार्वजनिक करने के लिए कहा. 2006 में पहली बार मैंने अपनी कुछ रचनाएं सार्वजनिक की; उसके बाद ही घर में भी सभी ने जाना कि मैं कवितायें भी लिखती हूँ. बाद में 2008 में जब नेट की दुनिया से जुड़ी तब से मेरी कविताओं को विस्तार मिला.


2. प्रश्न - किन किन विधाओं में आप लिखती हैं?
उत्तर -
मुख्यतः मेरे लेखन का विषय सामाजिक है. चाहे वो काव्य-लेखन हो या आलेख. सामजिक विषमताओं जिनमें स्त्री-विमर्श, विशेष घटनाएं, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, मन में स्वतः उपजी भावनाएं आदि होती हैं. अधिकाँश कविताएँ अतुकांत और आज़ाद ख्याल की हैं. कुछ हाइकु और ताँका भी लिखे हैं.


3. प्रश्न - अब तक आपने कितनी रचनाओं का सृजन किया है? कौन कौन सी मुख्य रचनाएँ हैं? अपनी पसंद की कुछ रचनाओं का जिक्र करें. उत्तर -
रचनाएँ तो हज़ारों की संख्या में है परन्तु मेरे ब्लॉग http://lamhon-ka-safar.blogspot.in/ में अभी 340 कवितायें प्रेषित हैं जिनमें कुछ हाइकु और ताँका भी शामिल हैं. मेरे ब्लॉग http://saajha-sansaar.blogspot.in/ में अलग अलग विषय पर 35 लेख प्रेषित हैं. मेरी कुछ काव्य-रचनाएँ जो मुझे बेहद पसंद है, उनके शीर्षक हैं... फूल कुमारी उदास है, तेरे ख्यालों के साथ रहना है, परवाह, कवच, मैं स्त्री हो गई, जा तुझे इश्क हो, भूमिका, अकेले से लगे तुम, क्या बन सकोगे एक इमरोज़, मछली या समंदर, एक अदद रोटी, बेलौस नशा माँगती हूँ, उम्र कटी अब बीता सफ़र, अनुबंध, विजयी हो पुत्र, राम नाम सत्य है, हवा खून खून कहती है, तुम अपना ख्याल रखना, ये कैसी निशानी है, तुम शामिल हो, आज़ादी चाहती हूँ बदला नहीं, अज्ञात शून्यता, चाँद सितारे, बाबा आओ देखो... तुम्हारी बिटिया रोती है, कृष्ण एक नयी गीता लिखो, नेह-निमंत्रण तुम बिसरा गए, अवैध सम्बन्ध, ख़ुद को बचा लाई हूँ, आओ मेरे पास, आदि. लेख में 'लुप्त होते लोकगीत', 'चहारदीवारियों में चोखेरबालियाँ', 'राम जन्मभूमि : बाबरी मस्ज़िद', 'ईश्वर के होने न होने के बीच', 'टूटता भरोसा बिखरता इंसान', 'मोहल्ला मुख्यमंत्री', 'नाथनगर के अनाथ', 'रहस्यमय शरत', 'स्मृतियों से शान्तिनिकेतन', 'कठपुतलियों वाली श्यामली दी'', स्मृतियों में शान्तिनिकेतन' आदि.


4. प्रश्न - अपनी प्रकाशित रचनाओं के बारे में बताएँ.
उत्तर - डॉ. मिथिलेश दीक्षित द्वारा संपादित हाइकु-संकलन 'सदी के प्रथम दशक का हिन्दी हाइकु-काव्य' (सन् 2011) में 108 हाइकुकारों के हाइकु हैं जिनमें मेरे 12 हाइकु हैं. श्री राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी 'बन्धु'  द्वारा संपादित हाइकु-संकलन 'सच बोलते शब्द' (सन् 2011, दिसम्बर) में अट्ठानवे हाइकुकारों के हाइकु हैं जिनमें मेरे 10 हाइकु हैं. श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' और डॉ. भावना कुँवर द्वारा संपादित ताँका-संकलन 'भाव-कलश' (सन् 2012) में 29 कवियों के ताँका हैं जिनमें मेरे 30 ताँका हैं.
ऑस्ट्रेलिया की पत्रिका 'हिन्दी गौरव' तथा भारत की विभिन्न पत्रिका जैसे उदंती, सद्भावना दर्पण, वीणा, वस्त्र परिधान, गर्भनाल, प्राच्य प्रभा, वटवृक्ष, आरोह अवरोह में कविता और लेख का प्रकाशन. तहलका और लीगल मित्र पत्रिका में संयुक्त लेखन प्रकाशित.
चौथी दुनिया, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, भारत देश हमारा आदि अखबार में लेख प्रकाशित.  


5 . प्रश्न - गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर के बारे में आप पाठकों को कुछ बताएँ.
उत्तर -
गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर विश्वविख्यात कवि राष्ट्र-कवि के रूप में जाने जाते हैं. वो भारत की आज़ादी की लड़ाई से भी जुड़े हुए थे. गुरुदेव बहुत बड़े साहित्यकार, कहानीकार, कवि, चित्रकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार, दार्शनिक और समाज सेवी थे. उन्हें साहित्य के लिए नोबेल प्राइज़ मिला था. उनकी रचनाओं में प्रकृति और आम मनुष्य की गहरी संवेदनाएं परिलक्षित होती हैं. गुरुदेव द्वारा रचित ''जन गण मन अधिनायक जय है'' भारत का राष्ट्र-गान बना तथा ''आमार सोनार बांग्ला'' बांग्ला देश का राष्ट्र-गान बना. गुरु देव द्वारा रचित गीत और संगीत 'रबीन्द्र संगीत' के नाम से प्रसिद्ध है. जालियाँवाला बाग़ काण्ड के विरोध में गुरुदेव ने ब्रिटिश द्वरा मिला खिताब 'सर' लौटा दिया साथ ही नाईटहुड की उपाधि भी लौटा दी.


6. प्रश्न - शान्तिनिकेतन के बारे में बताएँ.
उत्तर -
गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर की कर्मभूमि 'शान्तिनिकेतन' की स्थापना गुरुदेव के पिता महर्षि देबेन्द्रनाथ ठाकुर ने पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिला के बोलपुर में की. यहाँ गुरुदेव ने भारतीय और पाश्चात्य देश की सर्वश्रेष्ठ परंपरा को सम्मिलित कर एक नया प्रयोग किया और अपनी सोच पर आधारित विद्यालय खोला जो बाद में विश्वभारती विश्वविद्यालय के नाम से प्रसिद्द हुआ. यह स्थान प्रकृति के साथ कला, साहित्य और संस्कृति का अनोखा संगम है. गुरुदेव की सोच और जीवन-शैली यहाँ की संस्कृति में रचा बसा हुआ है. सहज जीवन के साथ चिंतन का समावेश यहाँ दिखता है. शान्तिनिकेतन शिक्षा के साथ ही पर्यटन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है.


7. प्रश्न - सुनने में आया है कि आपके जीवन की कोई घटना शान्तिनिकेतन से सम्बन्ध रखती है; कृपया उस पर प्रकाश डालें.
उत्तर -
भागलपुर दंगा जीवन की ऐसी घटना थी जिसने मेरे जीवन की दशा और दिशा बदल दी. 1989 में भागलपुर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ था, जिसमें मेरे घर में पनाह लिए करीब 100 लोगों में से 22 लोग क़त्ल कर दिए गए. 1990 में पश्चिम बंगाल से गौर किशोर घोष जो आनंद बाज़ार पत्रिका से सम्बद्ध थे; शान्तिनिकेतन से कुछ लोगों की टीम लेकर सामाजिक सद्भावना के लिए भागलपुर आए. मेरे घर में हुई घटना से मेरी मानसिक स्थिति का अंदाजा लगाते हुए अपने साथ शान्तिनिकेतन ले गए. इस तरह भागलपुर दंगा की दुखद घटना के बाद मेरा शान्तिनिकेतन से सम्बन्ध जुड़ गया.


8. प्रश्न - जेन्नी जी, शान्तिनिकेतन से आपका लगाव कब और कैसे हुआ?
उत्तर -
1990 में शान्तिनिकेतन पहली बार आई थी. जब यहाँ आई तो सभी अपरिचित थे. गौर दा और उनकी टीम के सदस्यों ने मेरा बहुत सहयोग किया ताकि मैं उस घटना के प्रभाव से उबर सकूँ. जब शान्तिनिकेतन आई थी तब तक मेरी मेरी एम. ए. की परिक्षा ख़त्म हो गई थी और मैंने एल.एल बी. भी कर लिया था. पढ़ाई ख़त्म हो चुकी थी और भागलपुर के घर में जाने से मन घबराता था तो गौर दा ने विश्वभारती विश्वविद्यालय में मेरा नामांकन करा दिया. शान्तिनिकेतन से अपरिचित मैं धीरे धीरे वहाँ के शांत वातावरण और अपनापन वाले माहौल में रच बस गई. वहाँ सभी से मुझे बहुत प्रेम और अपनापन मिला और वहाँ का वातावरण मेरे मन के अनुकूल लगा, इस कारण शान्तिनिकेतन से लगाव हुआ.


9. प्रश्न - वहाँ का वातावरण आपको कैसा लगा?
उत्तर -
शान्तिनिकेतन नाम से ही वहाँ के वातावरण का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है. बहुत ही शांत और प्राकृतिक वातावरण जहाँ शिक्षा के साथ ही भारतीय कला और संस्कृति की अनुगूँज हर तरफ दिखती है. वहाँ का वातावरण बहुत सहज और सरल है जो मन को सुकून देता है और मुझे मेरी जीवन शैली और सोच के करीब लगता है.


10. प्रश्न- आपने शान्तिनिकेतन में कितना समय गुजारा?
उत्तर -
तकरीबन 6 माह मैं शान्तिनिकेतन में रही.


11. प्रश्न - शान्तिनिकेतन में रहते हुए किन-किन महानुभावों से आपका सम्पर्क हुआ?
उत्तर -
शान्तिनिकेतन में रहते हुए कई सम्मानिये लोगों से सम्पर्क हुआ जिनमें विश्वभारती विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलपति, कलाकार, लेखक, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता आदि शामिल हैं. गौर किशोर घोष, श्यामली खस्तगीर, बानी सिन्हा, सुरेश खैरनार, अमलान दत्त, आरती सेन, मंजूरानी सिंह, श्यामा कुंडू, रमा कुंडू, मनीषा बनर्जी आदि लोगों से मुलाक़ात हुई. 


12. प्रश्न-  क्या आज भी आप वहाँ जाती हैं?
उत्तर -
जी हाँ. 20 वर्ष पूर्व शान्तिनिकेतन छोड़ कर आई थी उसके बाद अभी गत वर्ष दो बार वहाँ गई.


13. प्रश्न - आपके जीवन की कुछ अविस्मरणीय घटना?
उत्तर -
यूँ तो जीवन में सदा अप्रत्याशित घटनाएँ होती रहती हैं, कुछ सुखद कुछ दुखद. 1978 में मेरे पिता की मृत्यु मेरे लिए बहुत दुखद घटना थी. उसके बाद 1989 में भागलपुर का दंगा ऐसी ही दुखद घटना है जिसे जीवन भर भूल नहीं सकती. एक और घटना का जिक्र करना चाहूंगी जिसे सुखद कहूँ या दुखद मैं ख़ुद समझ नहीं पाती. दोबारा शान्तिनिकेतन जाने पर पुराने सभी मित्रों और परिचितों से मिलना बहुत सुखद रहा था. श्यामली दी जो एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ ही लोककला और संस्कृति के प्रसार के लिए प्रसिद्ध हैं; से मिलने के बाद 18 जुलाई, 2011 को मैं वापस आ रही थी. उन्होंने मुझे नाश्ते पर बुलाया था, नाश्ता बनाते हुए उन्हें स्ट्रोक आया और मुझसे बातें करते करते में उनका पूरा शरीर लकवाग्रस्त हो गया. अस्पताल में भर्ती हुई और फिर 15 अगस्त को सदा के लिए चली गईं. 20 साल बाद श्यामली दी से मेरी मुलाक़ात और फिर मुझसे ही अंतिम बात हुई और दुनिया छोड़ गई, समझ नहीं पाती कि ऐसा क्यों हुआ. शान्तिनिकेतन में गौर दा के बाद श्यामली दी से मैं बहुत जुड़ी हुई थी.


14. प्रश्न - शान्तिनिकेतन पर क्या आपने कभी कुछ लिखा है? कोई रचना जिसे हम सभी से साझा करना चाहेंगी?
उत्तर -
शान्तिनिकेतन पर मेरे लेख और संस्मरण हैं - 'स्मृतियों से शान्तिनिकेतन', 'स्मृतियों में शान्तिनिकेतन' और 'कठपुतलियों वाली श्यामली दी' आदि.
जब 20 साल बाद दोबारा शान्तिनिकेतन गई तो शान्तिनिकेतन पर एक कविता लिखी, जिसे आप सभी से साझा कर रही हूँ.


उन्हीं दिनों की तरह...
*******
चौंक कर उसने कहा
''जाओ लौट जाओ
क्यों आयी हो यहाँ
क्या सिर्फ वक़्त बिताना चाहती हो यहाँ?
हमने तो सर्वस्व अपनाया था तुम्हें
क्यों छोड़ गई थी हमें?''
मैं अवाक
निरुत्तर!
फिर भी कह उठी
उस समय भी कहाँ मेरी मर्ज़ी चली थी
गवाह तो थे न तुम,
जीवन की दशा और दिशा को
तुमने हीं तो बदला था,
सब जानते तो थे तुम
तब भी और अब भी|
सच है
तुम भी बदल गए हो
वो न रहे
जैसा उन दिनों छोड़ गई थी मैं,
एक भूल भुलैया
या फिर अपरिचित सी फ़िज़ा
जाने क्यों लग रही है मुझे|
तुम न समझो
पर अपना सा लग रहा है मुझे
थोड़ा थोड़ा हीं सही,
आस है
शायद
तुम वापस अपना लो मुझे
उसी चिर परिचित अपनेपन के साथ
जब मैं पहली बार मिली थी तुमसे,
और तुमने बेझिझक
सहारा दिया था मुझे
ये जानते हुए कि मैं असमर्थ और निर्भर हूँ
और हमेशा रहूंगी,
तुमने मेरी समस्त दुश्वारियां समेट ली थी
और मैं बेफ़िक्र
ज़िन्दगी के नए रूप देख रही थी
सही मायने में ज़िन्दगी जी रही थी|
सब कुछ बदल गया है
वक़्त के साथ,
जानती हूँ
पर उन यादों को जी तो सकती हूँ|
ज़रा-ज़रा पहचानो मुझे
एक बार फिर उसी दौर से गुज़र रही हूँ,
फ़र्क सिर्फ वज़ह का है
एक बार फिर मेरी ज़िन्दगी तटस्थ हो चली है
मैं असमर्थ और निर्भर हो चली हूँ|
तनिक सुकून दे दो
फिर लौट जाना है मुझे
उसी तरह उस गुमनाम दुनिया में
जिस तरह एक बार ले जाई गई थी
तुमसे दूर
जहाँ अपनी समस्त पहचान खोकर भी
अब तक जीवित हूँ|
मत कहो
''जाओ लौट जाओ'',
एक बार कह दो
''शब, तुम वही हो
मैं भी वही
फिर आना
कुछ वक़्त निकालकर
एक बार साथ साथ जियेंगे
फिर से
उन्हीं दिनों की तरह
कुछ पल!''

_ जेन्नी शबनम ( जुलाई 17, 2011)
( 20 साल बाद शान्तिनिकेतन आने पर )
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15. प्रश्न- आप हमारे युवा वर्ग को क्या सन्देश देना चाहेंगी?
उत्तर -
युवा वर्ग के लिए मेरा यही सन्देश है कि उचित अनुचित की मान्य परिभाषा से अलग होकर अपनी सोच विकसित करें और ख़ुद अपनी राह का चुनाव करें. मुमकिन है ख़ुद की चुनी हुई राह में मुश्किलें हों; जीत मिले या कि मात हो, पर मन को सुकून तो होगा कि हमने कोशिश तो की. दूसरों के दिखाए राह पर चलना सरल भी है और सफल होने की पूर्ण संभावना भी परन्तु अनजान राहों पर चलकर सफल होना आत्म विश्वास भी बढ़ाता है और ख़ुद पर यकीन भी. बुजुर्गों की सुनो और समझो फिर अपने अनुभव से जिओ.