Wednesday 15 August 2012

मित्रों आज आजादी के इस पावन अवसर पर मेरी कविता " फरियाद " प्रस्तुत है .यह कविता उन लोगों की ललकार है जो आज भी आजाद न होकर गुलामी का जीवन जी रहे हैं...................................................

 
                                                             फरियाद
       आजादी के इस पावन अवसर पर
       आइए सुनते हैं इनकी फरियाद
      चीख-चीखकर ये भी कह रहे हैं
       आखिर हम हैं कितने आजाद

       पहली बारी उस मासूम लड़के की
       जो भुखमरी से ग्रस्त होकर
      न जाने हररोज कितने अपराध कर ड़ालता है

       दूसरी बारी उस अबला नारी की
     जो आए दिन दहेज़ के लोभियों द्वारा
       सरेआम दहन कर दी जाती है

       तीसरी बारी उस बच्चे की 
    जो शिक्षा के अधिकार से वंचित
  अज्ञानता के गर्त में गिरा दिया जाता है

     चौथी बारी उस बुजुर्ग की
  जो अपने ही घर से वंचित होकर
 वृद्धा आश्रम में धकेल दिया जाता है

    पाँचवीं बारी उस मजदूर की
   जो ठेकेदार की तानाशाही से
    ताउम्र गरीबी झेलता है

   छठी बारी उस जनता की
 जो नेताओं की दादागिरी के कारण
  मँहगाई की मार सहती है

तो आओ,हम सब इनकी फरियाद सुनकर
      एक मुहिम चलाएँ
सही मायनों में आजादी का अधिकार
       इन्हें दिलाएं

आजादी से सम्बन्धित मेरा एक आलेख भी(आजादी का मन्तव्य क्या ?)....................




                आजादी का मन्तव्य क्या ?
भारत एक आजाद देश है l प्रत्येक वर्ष आजादी का जश्न पूरे भारतवर्ष में बड़ी धूमधाम और उत्साहपूर्वक मनाया जाता है l आजादी से तात्पर्य है--प्रत्येक व्यक्ति को अपने मानवीय मौलिक अधिकारों को प्रयोग करने का पूर्ण रूप से अधिकार हो l चाहे वह निम्न,मध्य या उच्च वर्ग से ही सम्बन्धित क्यों न हो l इसके साथ ही साथ एक साधारण व्यक्ति स्वयं को दूसरे व्यक्ति के समक्ष दलित,दमित व उपेक्षित न महसूस करे अपितु वह अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व को सुरक्षित रख सके l अब प्रश्न यह उठता है ,क्या भारत में रह रहा प्रत्येक व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से आजादी का जीवन व्यतीत कर रहा है ?सन् 1947 को हमारा देश आजाद हुआ और थोड़ा-बहुत सामाजिक मूल्यों में बदलाव भी आया ,परन्तु समाज को परम्परागत रूढ़ियों से आज भी आजादी नहीं मिल पाई lआजादी से पूर्व भी व्यक्ति बेबसी,यातना व गुलामी का जीवन जीने को अभिशप्त था और आजाद भारत में भी वह अपने मानवाधिकारों से वंचित पालकों और मालिकों पर आश्रित रहकर गुलाम ही है lयदि भारत के प्रत्येक व्यक्ति को नागरिक के रूप में समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई व उपयोगी अंग कहा जाता है,  तो उसे मानवीय अधिकारों से अपरिचित तथा वंचित क्यों रखा जाता है ?उसे प्रत्येक क्षेत्र में अपने अधिकारों का उचित उपयोग करने की स्वतंत्रता क्यों नहीं दी जाती ?वह परमुखापेक्षी बनकर जीवन व्यतीत क्यों करता है ?आज भी ऐसे कई सवाल हमारे सामने खड़े हैं l गुलामी के चक्रव्यूह में पुरुष ,नारी,बच्चे व बुजुर्ग आदि सभी वर्ग प्रताड़ित होकर परिभाषित और प्रतिबंधित जीवन जी रहे हैं lअत्याचारों का सिलसिला कहीं रुकता ही नजर नहीं आता l
                                             अगर गुलामी का जीवन जी  रहा व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना भी चाहता है, तो परिवार व समाज द्वारा उस पर ऊंगली उठाकर प्रश्नचिन्हृ लगाए जाते हैं l जब उसे शोषण,अत्याचारों ,उत्पीड़नों के कटहरे में अभियुक्त बनाकर व्यापक मानवता के अनगिनत लाभों से वंचित करके मानसिक रूप से त्रस्त किया जाता है l तब उसे सुरक्षा,सम्मान और समानता का ज्ञान नहीं हो पाता l आज इस गुलामी का स्तर     पारिवारिक,सामाजिक,राजनैतिक,धार्मिक,आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर अबाध गति से बढ़ता जा रहा है l           
पारिवारिक स्तर  पर सदस्यों द्वारा ही एक-दूसरे से भेदभाव करके उसे पराश्रित होने पर मजबूर किया जाता है l खासतौर पर परिवार में नारी की पहचान पुरुष के साथ ही सम्भव मानी जाती है ,यथा-घर से निकलने पर पाबन्दी लगाना,शिक्षा से वंचित करना,मानसिक व शारीरिक रूप से शोषित करना,छोटी उम्र में विवाह कर देना तथा आर्थिक अधिकारों से परावलम्बी बना देना आदि गुलामी की भूमिका को और भी प्रखर कर देते हैं l इसी तरह परिवार में बुजुर्गों की स्थिति भी अत्यंत दयनीय होती जा रही है l वे आत्म-विस्मृति के जाल-जंजाल में फँसकर दीन-हीन पतित बनकर घर की कैद में ड़र एवं भय की हथकड़ियों से बँधकर रह जाते हैं l सामाजिक स्तर  में स्थिति और भी शोचनीय है l समाज में नारी-वर्ग की ओर देखें तो आए दिन भ्रूण-हत्या,बलात्कार ,दहेज-उत्पीड़न व छेड़छाड़ आदि की घटनाएँ दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक बढ़ती ही जा रही हैं l दूसरे ,समाज में बच्चों को लेकर भी ऐसे कई मामले सामने आते हैं जिनसे पता चलता है कि मासूम बच्चों को बंधक बनाकर उनसे रेलवे स्टेशनों और बस-स्टापों पर भीख मँगवाई जाती है l अभिभावकों द्वारा बाल-मजदूरी करवाना भी कानूनी-अपराध ही है l अभिभावक ही अपने बच्चों से बाल-मजदूरी करवाकर उसे असभ्य,अयोग्य एवं अप्रगतिशील बना रहे हैं l बच्चों की तरह बुजुर्ग वर्ग भी सामाजिक स्तर पर दुरावस्था का शिकार हो रहे हैं l इसलिए आज ओल्ड ऐज होम्स की संख्या तेजी से बढ़ती ही जा रही है l बुजुर्ग वर्ग अपनी हिफाजत के लिए इन्हीं संस्थाओं की शरण ले रहे हैं l राजनैतिक स्तर पर योग्य व्यक्ति को उसकी काबलियत के अनुसार अवसर प्रदान नहीं किए जा रहे l उसे वहाँ भी दूसरों के आधीन रहकर कार्य करने को मजबूर होना पड़ रहा है l आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र में राजनीति का बोलबाला देखने को मिलता है l इसी कारण भ्रष्टाचार की समस्या भयानक रूप धारण करती जा रही है जिससे आज प्रत्येक व्यक्ति इसकी पकड़ में आ रहा है l
                       धार्मिक स्तर पर कई जगहों पर आज भी उच्च जाति निम्न जाति पर क्रूर और वक्र दृष्टि ड़ालकर उसे समाज से बहिष्कृत कर देती है l निम्नवर्गीय व्यक्ति जीवन से अभिशप्त होकर स्वयं को एक निस्तेज आभाहीन आत्मा की भान्ति महसूस करता है l आर्थिक स्तर पर भी साधारण श्रमजीवी से लेकर सम्पन्न वर्ग के व्यक्ति की स्थिति दयनीय बनती जा रही है l कार्यक्षेत्र में पुरुष-स्त्री दोनों को ही बॅास द्वारा शोषण,स्थानांतरण,कम वेतन और प्रताड़ना के भिन्न तरीकों से साक्षात्कार करवाकर दासता की बेड़ियों में बाँधकर रखा जाता है जिससे वे आजीवन दूसरों के नियंत्रण में रहकर पराधीन बन जाते हैं l ऐसे ही पारिवारिक क्षेत्र में भी कई बार एक सदस्य द्वारा दूसरे सदस्य का सम्पत्ति पर से अधिकार छीन लिया जाता है l जब बात शैक्षणिक स्तर की होती है तो प्रत्येक व्यक्ति यह जानता है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल अक्षर ज्ञान ही नहीं होता अपितु शिक्षा ही मानव में आत्मसुरक्षा का भाव जागृत करके उसे एक कुशल नागरिक बनाती है l इस बात से भलीभांति परिचित होते हुए भी भारतीय समाज में जहाँ आज भी बेटियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा जाता है, वहाँ लिंगभेद के कारण समाज में नारी के व्यक्तित्व एवं विकास की सम्भावना ही नहीं होती l
         इस तरह व्यक्ति प्रत्येक क्षेत्र में गुलामी के साये में जीवन की बाजी हारकर स्वयं के लिए यथोचित निर्णय ले सकने के अभाव में अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाता और उसका मन और शरीर अमानुषिक यंत्रणाओं को सहने का अभ्यस्त बन जाता है l आज नवीन प्रगतिशील जीवन की आंकाक्षा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के अस्तित्व का बोध उसकी स्वतंत्रता की अनूभूति में ही है l आज सबसे अधिक जरूरत है कि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच सौहार्दपूर्ण ,आत्मीय सम्बन्धों की समानतापूर्ण स्थापना हो और एक ऐसा मानवीय समाज बने जहाँ कोई भी किसी के साथ बर्बतापूर्ण अमानवीय व्यवहार न करे l प्रत्येक व्यक्ति आत्मसम्मान,आत्मनिर्भरता व आत्मविश्वास की भावना के साथ आगे बढ़े l समाज में जिस व्यक्ति को कमजोर व असहाय समझकर अवहेलित किया जाता है वह भी दूसरों के समान समाज में अपना महत्त्व सिद्ध करके जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाए तभी उसे समाज में उचित आदर,सम्मान व स्थान का अधिकारी घोषित किया जा सकेगा l इसके साथ-ही-साथ उन सामाजिक मूल्यों व रूढ़िगत परम्पराओं में भी बदलाव लाना होगा जो एक व्यक्ति को दूसरे के समक्ष दास बनाने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं l जब इन सभी बातों का ध्यान रखा जाएगा तब एक स्वस्थ परिवार,समाज व राष्ट्र का निर्माण सम्भव हो पाएगा और प्रत्येक व्यक्ति सही मायनों में आजाद होगा l
लेखिका----डॉ.प्रीत अरोड़ा

E-mail—arorapreet366@gmail.com


Friday 10 August 2012

किताबों की दुनिया








   किताबों का एक अनोखा संसार है
    जिसमे ज्ञान का अक्षय भण्डार है
      मानो या न मानो
  किताबों से ही जीवन में बहार है

किताबें हमारी सबसे अच्छी दोस्त हैं
   जो हमें जीना सिखाती हैं
   शिक्षिका के रूप में
हमें पढ़ाकर साक्षर बनाती हैं  

किताबें परियों की कहानी सुनाती हैं
ये अनकही पहेलियाँ भी सुलझाती हैं  
किताबों  से मनचाहे वरदान प्राप्त होते हैं
किताबें पढकर सपने भी साकार होते हैं

किताबों से विद्यार्थी बहुत कुछ पाता है
किताबें ही उसकी भाग्य निर्माता हैं
किताबों की यही तो निराली अदा है
इसलिए सारी दुनिया इन पर फिदा है