हिन्दी के महत्वपूर्ण कहानीकार श्री तेजेन्द्र शर्मा का जन्म 21 अक्टूबर 1952 को जगरांव, (पंजाब) में हुआ l वर्तमान में श्री तेजेन्द्र ब्रिटेन में रहकर हिन्दी-साहित्य की सेवा कर रहे हैं l इनकी अब तक की प्रकाशित कृतियों में कहानी संग्रह के अंतर्गत क़ब्र का मुनाफ़ा , बेघर आंखे, यह क्या हो गया, देह की कीमत, ढिबरी टाईट, काला सागर, सीधी रेखा की परतें – तेजेन्द्र शर्मा समग्र कहानियां (भाग 1), दीवार में रास्ता (शीघ्र प्रकाश्य), तेजेन्द्र शर्मा की कहानियां – ऑडियो सी.डी. आदि और कविता-संग्रह के अंतर्गत ये घर तुम्हारा है, तेजेन्द्र शर्मा की ग़ज़लें (सी.डी.), अंग्रेज़ी में – Black & White (The Biography of a Banker), Lord Byron – Don Juan, John Keats – The Two Hyperions, अनूदित कृतियों के अंतर्गत – ढिबरी टाइट, कल फ़ेर आंवीं (पंजाबी) , पासपोर्ट का रंङहरू (नेपाली), ईंटों का जंगल (उर्दू) आदि प्रकाशित हो चुकी हैं l तेजेंद्र जी को सम्मान के रूप में ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार – 1995 (प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों। भारतीय उच्चायोग लंदन द्वारा डॉ. हरिवंशराय बच्चन सम्मान (2008), अभिव्यक्ति वैबज़ीन द्वारा आयोजित कथा महोत्सव 2008 में कहानी ओवरफ़्लों पार्किंग को श्रेष्ठ कहानी का 5,000 रुपये का सम्मान, कृति यू.के. द्वारा वर्ष 2002 के लिये “बेघर आँखें ” को ब्रिटेन की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कहानी का पुरस्कार। प्रथम संकल्प साहित्य सम्मान – दिल्ली (2007), सरस्वती प्रकाशन, नई दिल्ली। तितली बाल पत्रिका का साहित्य सम्मान – बरेली (2007), सहयोग फ़ाउंडेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार – 1998 (सहयोग फ़ाउण्डेशन, मुंबई), सुपथगा सम्मान -1987 – सुपथगा संस्था (नई दिल्ली)। डी.ए.वी.गर्ल्ज़ कॉलेज, यमुनानगर द्वारा हिन्दी साहित्य मे योगदान के लिये सम्मानित (2007) आदि से नवाजा भी गया है l इनकी अन्य उपलब्धियों में कथा यू.के. लन्दन के महासचिव, कथा यू.के. के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान एवं पद्मानन्द साहित्य सम्मान का ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स एवं हाउस ऑफ़ कॉमन्स में आयोजन। लंदन, बर्मिंघम, यॉर्क, नॉटिंघम एवं वेल्स में कथा गोष्ठियों, कहानी कार्यशालाओं, एवं हिन्दी व कम्पयूटर कार्यशालाओं का आयोजन, टोरोंटो (कनाडा) में हिन्दी कहानी कार्यशाला का संचालन, दिल्ली, मुंबई, भोपाल, शिमला, यमुना नगर, फ़रीदाबाद, गया, वर्धा, लंदन, यॉर्क, बर्मिंघम, वेल्स, न्यूयॉर्क एवं टोरोंटो शहरों में कहानी पाठ। विश्व हिन्दी सम्मेलनों, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों, में भागीदारी एवं मह्त्वपूर्ण योगदान। दूरदर्शन के लिये शांति सीरियल का लेखन। अन्नु कपूर निर्देशित फ़िल्म अभय में नाना पाटेकर के साथ अभिनय। एकमात्र प्रवासी साहित्यकार जिसके संपूर्ण साहित्यवालोकन के लिये आलोचनात्मक ग्रंथ तेजेन्द्र शर्मा – वक़्त के आइने में प्रकाशित, जिसमें पैंतीस लेखकों एवं आलोचकों के लेख शामिल हैं (संपादक – हरि भटनागर)। दो वर्षों के लिये ब्रिटेन से प्रकाशित हिन्दी पत्रिका पुरवाई का संपादन, लंदन में हिन्दी फ़िल्मों पर आधारित साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन, कहानियों का ऑल इंडिया रेडियो, मुंबई, एवं दिल्ली व सनराइज़ रेडियो, लंदन से प्रसारण, बीबीसी लंदन (हिन्दी रेडियो), में तीन वर्ष तक समाचार वाचन, ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली में वर्ष 1972 से ड्रामा वॉयस, लंदन में हिन्दी नाटकों में अभिनय एवं निर्देशन जिनमें से हास्य नाटक हनीमून एवं वन-एक्ट-प्ले वापसी की ख़ासी चर्चा हुई, लंदन, बर्मिंघम, यॉर्क, मैन्चेस्टर, डर्बी, त्रिनिदाद, टोरोंटो, न्यूयॉर्क, दुबई, भारत के बहुत से शहरों में कवि सम्मेलनों में भाग लेना शामिल है। प्रस्तुत है ड़ॉ प्रीत अरोड़ा की श्री तेजेन्द्र शर्मा से एक विशेष मुलाक़ात……
१) प्रश्न—- ऐसा माना जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, तो तेजेन्द्र जी आपका साहित्य इस उक्ति पर कितना खरा उतरता है ?
उत्तर- साहित्य समाज का दर्पण होना चाहिये – आपकी यह बात तो सही है। ऐसा होना ही चाहिये। मगर क्या ऐसा होता है? मुंबई मैं मैने 22 वर्ष बिताये। वहां का एक भी हिन्दी लेखक ऐसा नहीं है जिसका जन्म वहां हुआ हो। यानि कि सभी पहली पीढ़ी के प्रवासी ही वहां हिन्दी लिख रहे हैं। इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि मुंबई का पूरा का पूरा हिन्दी साहित्य प्रवासी साहित्य है। प्रवासी लेखकों की एक ख़ास पहचान होती है नॉस्टेलजिया। वे उस जीवन और समाज के बारे में सोचते हैं जिसे वे पीछे छोड़ आए हैं। शायद इसी लिये उनके साहित्य में उनका अतीत बहुत शिद्दत से उभर कर सामने आता है। जबकि होना यह चाहिये कि लेखक अपने आसपास के समाज के प्रति उदासीन ना हो। जब आप बंगला साहित्य पढ़ते हैं तो आप कोलकता जाए बिना उस शहर को भीतर तक महसूस कर सकते हैं। जबकि मुंबई के हिन्दी साहित्य के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। मुंबई का लेखक जब यू.पी. के किसान के बारे में लिखता है – जिसे उसने कभी देखा महसूस नहीं किया – तो उसका साहित्य समाज का दर्पण कैसे बन सकता है। पिछले 12 वर्षों से मैनें यह मुहिम ब्रिटेन और अमरीका में चला रखी है कि हमें अपने अपनाए हुए देश के परिवेश, संघर्ष, रिश्तों और उपलब्धियों पर अवश्य लिखना चाहिये। जहां तक मेरे साहित्य का सवाल है, उसकी ख़ास बात रही मेरा एअर-इंडियन होना। उस नौकरी की वजह से मैं निरंतर विदेश यात्राएं करता था। जहां एक तरफ़ ईंटों का जंगल, एक ही रंग, किराए का नरक, मलबे की मालकिन, कैंसर, अपराध बोध का प्रेत जैसी कहानियां उस काल में लिखीं वहीं देह की क़ीमत, काला सागर, ढिबरी टाइट, उड़ान, भंवर, कोष्ठक जैसी कहानियां इस लिये लिख पाया क्योंकि एअर इंडिया की नौकरी ने एक भिन्न समाज से मेरा परिचय करवाया। ब्रिटेन में बसने के बाद मेरी कहानियों में एक विशेष किस्म का परिवर्तन आया। अब मैं अधिक आत्मविश्वास के साथ अपने माहौल को समझने का प्रयास करने लगा। ब्रिटेन आने से पहले मेरे तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। अब नई चुनौतियां थीं, नया परिवेश और नया समाज। क़ब्र का मुनाफ़ा, अभिशप्त, ये क्या हो गया, पापा की सज़ा, छूता फिसलता जीवन, मुझे मार डाल बेटा, तरकीब, कोख का किराया, ज़मीन भुरभुरी क्यों है, कैलिप्सो, होमलेस, कल फिर आना जैसी कहानियां इसी काल में लिखी गई हैं। यानि कि मेरी कहानियां हर उस समाज का दर्पण बनी जहां जहां मैं रहा और जिसकी विशिष्टताओं को मैनें समझने का प्रयास किया। क़ब्र का मुनाफ़ा को कथाकार संपादक हरि भटनागर ने इंडिया टुडे के एक सर्वेक्षण में बीस वर्ष की बीस महत्वपूर्ण कहानियों में शामिल किया।
(२) प्रश्न–जैसाकि आपने बहुत-से देशों में भ्रमण किया है तो कौन-कौन से देश में नारी की स्थिति को देख कर आपने यह महसूस किया कि यहाँ नारी आज भी अशिक्षित, शोषित व मानवीय अधिकारों से वंचित दोयम दर्जे का जीवन व्यतीत कर रही है ?
उत्तर—बात यह है प्रीत कि सभी धर्मों और देशों में नारी का रुतबा हमेशा से दोयम दर्जे का रहा है। यहां तक कि ब्रिटेन में औरतों को चुनाव में भाग लेने की अनुमति नहीं होती थी। एक औरत 110 वर्ष पहले रात भर ब्रिटिश संसद की एक अल्मारी में बंद रही ताकि सुबह होने पर अपना वोट डाल सके। शायद उस दिन से पश्चिमी देशों में नारी उत्थान का काम शुरू हो गया था। वैसे नारी को दबाने के लिये धर्म और संस्कृति का सहारा ही लिया गया है। कहीं स्त्री को चेहरा और शरीर छिपा कर रखना पड़ता है तो कहीं उसे संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलता। पश्चिमी देशों की स्त्री अपने अधिकार मांगने लगी है शायद इसीलिये वहां विवाह नाम की संस्था की चूलें बुरी तरह हिल गई हैं। यहां अब गर्ल-फ़्रेण्ड और बॉय-फ़्रेण्ड इकट्ठे रहते हैं, बच्चे पैदा करते हैं और कई बार तो तीन तीन बच्चे होने के बाद शादी करते हैं। सिंगल मदर यानि के अकेली माताओं की इन देशों में अलग समस्या है। भारत की महिलाओं की समस्या अलग किस्म की है। जो अशिक्षित हैं, गांव में रहती हैं उन्हें शायद इस बात का ज्ञान भी नहीं हो पाता कि उनका शोषण हो रहा है। क्योंकि जब तक आपको ज्ञान नहीं होगा तब तक आपको महसूस भी कैसे होगा। जहां तक भारत के महानगरों की पढ़ी-लिखी नौकरी-पेशा नारियों का सवाल है, उनकी स्थिति शायद सबसे अधिक ख़राब है। वे बेचारियां अपने पति ही की तरह दफ़्तर जाती हैं, वहां मैनेजर या क्लर्क या जो भी नौकरी करती हैं। ठीक पति की ही तरह बसों और लोकल ट्रेन के धक्के खाती हैं। मगर शाम को वापिस घर आकर खाना बनाना उनका ही काम है। मेरे एक मित्र मुंबई में एक बैंक के जनरल मैनेजर हैं और उनकी पत्नी किसी सरकारी कम्पनी में हिन्दी अधिकारी हैं। मैं देखता हूं कि घर में पत्नी ठीक उसी तरह काम करती है जैसे कि कोई फ़ुल-टाइम हाउसवाइफ़ करती है और पति काम से घर लौट कर टीवी के सामने बैठ जाते हैं और मित्रों से फ़ोन पर बतियाने लगते हैं। भाई को ठीक से चाय तक बनानी नहीं आती। शिक्षा ही शायद मानसिकता को बदल पाएगी। ज़रूरी है मानसिकता को बदलना। पुरुष को समझना होगा कि नारी को बराबर का हक़ मिलना ही चाहिये। नारी भी आज पुरूष की ही तरह काम करती है, मेहनती है, ईमानदार है और कमाल तो यह है कि उतनी ही भ्रष्ठ भी है। आहिस्ता आहिस्ता यह बराबरी सामने आने लगेगी।
(३) प्रश्न—आप कहानीकार भी हैं और कवि भी .आपकी नज़र में कहानी लिखना मुश्किल है या छंदोबद्ध कविता ?
उत्तर– पहले आपके सवाल पर टिप्पणी करना चाहूंगा। मैं अपने आप को कहानीकार मानता हूं मगर कवि नहीं। हां मैं कविता एवं ग़ज़ल लिखने का प्रयास अवश्य करता हूं किन्तु मेरा स्वभाव एक कवि का स्वभाव नहीं है। छंदोबद्ध कविता तो लगभग ग़ायब ही हो गई है। और केवल भारत से ही नहीं टी.एस.ईलियट और डब्ल्यू. एच. ऑडेन के बाद से पूरे विश्व में जैसे छंद की हत्या कर दी गई है। भारत में तो छंदबद्ध कविता लिखना अपराध ही मान लिया गया है। छंद के लिये शिक्षा, दीक्षा, ज्ञान और अभ्यास की आवश्यक्ता पड़ती है। याद रहे कि तुकांत कविता और तुकबंदी में बहुत अंतर होता है। जब छंद का स्थान तुकबंदी ने ले लिया तो छंदबद्ध कविता अपना स्थान खो बैठी। कविता के लिये प्रतिभा की आवश्यक्ता होती है। जबकि कहानी केवल प्रतिभा से नहीं लिखी जा सकती। कविता सांकेतिक होती है। बिम्ब और कल्पनाशक्ति उसमें महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। कहानी में समग्रता होती है। कहानी के विषय समाज की ठोस समस्याओं से जुड़े होते हैं और चरित्रों एवं परिवेश के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों और अन्याय का अनावरण किया जाता है। मैं अपनी कहानियों में हमेशा अन्याय के विरुद्ध कमज़ोर व्यक्ति के पक्ष में खड़ा दिखाई देता हूं। कविता भावनाओं का त्वरित अधिप्रवाह है तो कहानी रिश्तों और समस्याओं की तर्कसम्मत प्रस्तुति। मैं कहानी में समस्याओं का हल प्रस्तुत करने के पक्ष में नहीं हूं। यह काम समाज सुधारकों का है।
(४) प्रश्न–आज ई-पत्रिकाओं और ई-पुस्तकों का प्रचलन बढ़ रहा है और समय के अभाव के कारण मुद्रित पत्रिका में प्रकाशित एक कहानीकार की कहानी का पाठक स्वयं लेखक ही बन रहा है ? तो ऐसे में मुद्रित पत्रिकाओं और पुस्तकों का भविष्य क्या है ?
उत्तर— यह सवाल बहुत मज़ेदार है। हिन्दी का कहानी लेखक हमेशा ही बेचारा रहा है… धर्मयुग, सारिका और साप्ताहिक हिन्दुस्तान बंद होने के बाद उसके छपने के लिये केवल लघु पत्रिकाएं ही बचती हैं। यह पत्रिकाएं तीन सौ से लेकर एक हज़ार के बीच ही छपती हैं। हंस और पाखी शायद इसका अपवाद हों। हिन्दी साहित्य के मठाधीशों ने कहानीकारों पर रोक लगा रखी है कि मेरी सहेली, गृहशोभा जैसी व्यवसायिक पत्रिकाओं में रचना भेजी तो उसे साहित्य का दर्जा नहीं मिलेगा। समाचार पत्रों में भी जनसत्ता के अतिरिक्त किसी और अख़बार में छपना मना है। बेचारा कहानीकार इन मठाधीशों को ख़ुश करने के लिये ऐसी पत्रिकाओं में छपने के लिये बाध्य हो जाता है जो लेखकों द्वारा प्रकाशित की जाती हैं, लेखक ही उसमें छपते हैं और लेखक ही उसे पढ़ते भी हैं। हिन्दी में ई-पुस्तकें अभी अपने शैशव काल में हैं। याद रखिये भारत में हिन्दी आज भी ग़रीब की भाषा है या फिर नारियों की। महानगरीय नई पीढ़ी का हिन्दी से कुछ ख़ास लेना देना नहीं। कम्पयूटर अपेक्षाकृत अमीर लोगों का खिलौना है जिनके घरों में अंग्रेज़ी का राज होता है। इसलिये ई-पत्रिकाएं भी अधिकतर लेखक ही चलाते हैं, लेखक ही लिखते हैं और लेखक ही पढ़ते भी हैं। जिनके पास छपा हुआ साहित्य पढ़ने का समय नहीं है, वे भला कम्पयूटर पर हिन्दी पढ़ने के लिये कैसे समय निकाल सकते हैं। अंग्रेज़ी में किंडल बुक्स (इलेक्ट्रॉनिक) आने के बावजूद साहित्य लिखने और छपने में कोई कमी नहीं आई। बुकर सम्मान के लिये आज भी अच्छी अच्छी किताबें मिलती हैं। हिन्दी की मुद्रित पुस्तकों के लिये निजि पाठकों की बहुत कमी हो गई है। उसका कारण है प्रकाशकों का रवैया। प्रकाशक हिन्दी पुस्तकों को डम्प करता है। निजी पाठकों तक हिन्दी की पुस्तकें नहीं पहुंच पाती हैं। कोई ऐसी दुकानें नहीं हैं जहां आप आसानी से हिन्दी की पुस्तकें ख़रीद सकें। ई-पत्रिकाएं क्योंकि अप्रकाशित रचनाओं की शर्त नहीं रखती हैं इसलिये उन्हें मुफ़्त रचनाएं मिल जाती हैं। ई-पत्रिकाएं और ई-पुस्तकें मुद्रित पत्रिकाओं और पुस्तकों के लिये ख़तरा नहीं हैं, बल्कि उनकी पूरक हैं।
(५) प्रश्न- तेजेन्द्र जी किसी भी उभरते हुए लेखक को शुरूआती दिनों में अपनी कृति को प्रकाशित करवाने के लिए प्रकाशकों की जटिल प्रक्रिया का सामना करना पड़ता है.मेरा अनुभव भी कटु है.इस बारे में आप अपने निजी अनुभव पाठकों के साथ साझा कीजिए ?
उत्तर– प्रीत जी, मेरा किस्सा थोड़ा अलग किस्म का है। मैंने अपनी पहली हिंदी कहानी लिखी 1980 में। उस से पहले मैं अंग्रेज़ी में लिखा करता था। पहली हिंदी कहानी लिखने में सहायता की इंदु जी (मेरी पत्नी) ने। और मैं सुलेख में लिख कर अपनी कहानी ले कर पहुँच गया नवभारत टाइम्स, मुंबई (उस समय बॉम्बे) के दफ़्तर। वहां नवभारत टाइम्स के रविवार संस्करण में रविवार्ता के संपादक विश्वनाथ सचदेव से मिला और उनको कहानी दे दी। उन्होंने रख ली और 3 या 4 सप्ताह में मेरी पहली कहानी प्रतिबिम्ब प्रकाशित हो गयी।। कोई बखेड़ा नहीं। मेरी दूसरी ही कहानी उड़ान (जो कि एक एअर होस्टेस के जीवन पर आधारित थी) को डॉक्टर देवेश ठाकुर ने वर्ष 1982 की सर्श्रेष्ठ कहानियों में शामिल कर लिया। हौसला बढ़ गया। काला सागर कहानी को आलोचकों ने सराहा। जब 10 कहानियां हो गयीं तो फ़ाइल ले कर सीधे वाणी प्रकाशन, दिल्ली पहुँच गया। उस समय वाणी के मालिक अशोक महेश्वरी और अरुण महेश्वरी बंधू थे। उन्होंने फ़ाइल रख ली और इंतज़ार करने को कहा। बाद में पता चला कि उन्होंने फाइल डॉक्टर प्रभाकर माचवे को भेज दी थी। माचवे जी ने कहानियों को पढ़ा और अपनी तरफ से पास कर दिया। और मेरा पहला कहानी संग्रह काला सागर प्रकाशित हो गया। सोच कर रोमांच होता है कि मेरे पहले कहानी संग्रह की कीमत केवल तीस रुपये थी। हाँ मुझे उन पत्रिकाओं ने कभी नहीं छापा जो किसी विचारधारा विशेष से सम्बन्ध रखती थीं जैसे कि पहल आदि। मगर मैं धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान, हंस, कादम्बिनी, सबरंग आदि में खूब छपा। मैं शायद एक नए लेखक के शुरुआती दिनों के संघर्ष के रोमांच से वंचित रह गया। वाणी प्रकाशन से एक अपनेपन का रिश्ता सा बन गया।
(६) प्रश्न–आज साहित्य में प्रसिद्धि और पैसे की दौड़ में अश्लील और उत्तेजित भाषा का प्रयोग करके दैहिक विमर्श व सत्ता विमर्श जैसे बाजारू एवं भ्रष्ट मुद्दों को भी उठाया जा रहा है जिससे लेखन भी अब एक व्यापार का रूप धारण करता जा रहा है। लेकिन मेरा यह मानना है कि इन विषयों के इलावा भी कई ऐसे अन्य विषय हैं जैसे– भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आंतकवाद, ग़रीबी, बुढ़ापा, नारी के मानवीय अधिकार, बाल-अपराध व पतित युवा पीढ़ी जिनपर लिखकर एक आदर्श एवं उन्नत समाज की स्थापना की जा सकती है.इस बारे में अपनी राय बताएँ ?
उत्तर– आप को शायद याद हो या नहीं कह नहीं सकता; डी. एच. लारेंस ने लेडी चैटर्लीज़ लवर 1928 में लिखी थी और तुरंत उस पर बैन लग गया था। उसे अश्लील और उत्तेजित भाषा का प्रयोग करने वाला उपन्यास घोषित कर दिया गया। मगर आज वही उपन्यास एक क्लासिक कृति कहलाता है। यही बात मंटो के साहित्य के बारे में भी कही जा सकती है। मंटो की कहानियों को भी अश्लील कहा गया और उन पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया। मगर आज वही कहानियां महान हो गई हैं। एक ख़ास विचारधारा के लेखकों ने साहित्य को भ्रष्टाचार, मज़ूदर, किसान और बाज़ारवाद तक सीमित कर दिया था। महत्वपूर्ण लेखक वही हैं जो किसी थीम विशेष से बंध कर नहीं लिखता। महत्वपूर्ण यह है कि लेखक अपने लेखन को लेकर कितना गंभीर है। अपनी कहानियों से उदाहरण नहीं दूंगा, अन्यथा आत्म-प्रचार का दोष मेरे सिर लगा दिया जाएगा। मगर मैं जितने भी गंभीर आलोचकों की तरफ़ देखता हूं, वे सब महत्वपूर्ण लेखकों पर लिख रहे हैं। जमशेदपुर की विजय शर्मा ने हाल ही में दो महत्वपूर्ण लेख लिखे थे – प्रवासी कहानी में वृद्धावस्था और प्रवासी कहानी में युवावस्था। यानि कि वह वर्तमान कहानियों में यह विषय देख रही हैं। पाखी, नया ज्ञानोदय, हंस, कथा देश, आधारशिला, लम्ही, कथाबिम्ब जैसी बहुत सी पत्रिकाएं हैं जिनमें लगभग सभी विषयों पर कहानियां मिल जाती हैं। हिन्दी साहित्य में पैसा कहां है, मैं नहीं जानता। हां फ़िल्म और टीवी में लिखने पर ज़रूर पैसा मिलता है। मैं जानता हूं क्योंकि जब भारत में था, शांति सीरियल के लिखने में भागीदारी की थी। मगर जहां तक साहित्यिक लेखन का सवाल है वहां पैसे और प्रसिद्धि की दौड़ जैसी कोई चीज़ नहीं है। साहित्यिक लेखन कभी समाज में बदलाव नहीं लाता, उसके लिये जागरूक पत्रकारिता काम आती है। किसी भी भारतीय भाषा का कोई भी लेखक क्रांति नहीं ला पाया। हां यह सच है कि देश की स्वतंत्रता की लड़ाई के समय कुछ ऐसे गीत अवश्य लिखे गये जो कि हमारे जांबाज़ों का हौसला बढ़ाते थे।
(७ )प्रश्न– आप गज़ल भी लिखतें हैं.गज़ल लिखने के लिए उर्दू भाषा का ज्ञान अनिवार्य है I आपने उर्दू की शिक्षा कहाँ से प्राप्त की है और गज़ल लिखने का शौक आपको कब और कैसे पैदा हुआ ?
उत्तर– प्रीत जी, जो लोग हिन्दी में हाइकू लिखते हैं क्या आपने उनसे कभी पूछा है कि उनको जापानी आती है या नहीं? क्या आपने गुजराती, पंजाबी या मराठी में ग़ज़ल लिखने वालों से पूछा है कि उन्हें उर्दू भाषा का ज्ञान है या नहीं? उनका जवाब बहुत सरल होगा – कि उन्होंने विधा उधार ली है, भाषा नहीं। ठीक उसी तरह हिन्दी में भी हमने ग़ज़ल विधा की तकनीक उधार ली है। बहर, वज़न आदि उर्दू से लिये हैं मगर भाषा हमारे पास है। हम ग़ज़ल को अपनी भाषा में लिखेंगे। यह जो सोच बनी हुई है कि ग़ज़ल लिखने के लिये उर्दू का ज्ञान ज़रूरी है, इसी कारण हिन्दी ग़ज़ल का कोई स्वरूप उभर नहीं पाया। हम भी उर्दू वालों की तरह ‘मेरा’ और ‘तेरा’ को ‘मिरा’ और ‘तिरा’ लिखने लगे हैं। भला ‘मिरा’ और ‘तिरा’ क्या हिन्दी के शब्द हैं? हमारी भाषा में मात्रा गिराने का रिवाज़ नहीं है तो हम क्यों ऐसा करें। हमें वज़न पूरा करने के लिये ऐसी ख़ुराफ़ातें उधार नहीं लेनी। हमारी भाषा में ‘सुबह’ को ‘सुभ’ नहीं बनना। अब आपके सवाल का दूसरा हिस्सा। मैनें उर्दू की बाक़ायदा शिक्षा नहीं ली। मेरे पिता स्वयं उर्दू में शायरी भी करते थे और कहानियां एवं उपन्यास भी लिखते थे। व पंजाबी भी उर्दू में ही लिखते थे। घर में उर्दू का माहौल था। बस कब उर्दू के शब्द मेरी शब्दावली में शामिल हो गये। मुझे दोहा और ग़ज़ल इस लिये अच्छे लगते हैं क्योंकि दो पंक्तियों में बहुत बड़ी बात कही जा सकती है। दोहे कभी लिख नहीं पाया मगर ग़ज़ल अपने आप को लिखवा लेती है। मुझे लगता है कि अभी हिन्दी ग़ज़ल को अपना स्थान बनाने में काफ़ी समय लगेगा।
(८ )प्रश्न– आप कथा यू.के के साथ कब और कैसे जुड़े ? इसमें आपकी क्या भूमिका है ?
उत्तर– कथा यू.के. का जन्म इंदु शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट के रूप में मुंबई में हुआ जहां यह एक रजिस्टर्ड ट्रस्ट है। ट्रस्ट के तीन फ़ाउण्डर ट्रस्टी थे – पत्रकार राहुल देव, पत्रकार एवं कवि विश्वनाथ सचदेव, एवं फ़िल्म अभिनेता नवीन निश्चल। मैं स्वयं ट्रस्ट का मैनेजिंग ट्रस्टी था। इस ट्रस्ट की स्थापना मेरी दिवंगत पत्नी इंदु जी की याद में किया गया जिनका कैंसर से असामयिक निधन हो गया था। ट्रस्ट ने शुरूआत में चालीस वर्ष से कम उम्र के कहानीकारों का सम्मान करने की योजना बनाई और 1995 से 1999 के बीच यह कार्यक्रम मुंबई के एअर इंडिया ऑडिटोरियम में ही किया गया। मेरे ब्रिटेन में बस जाने के बाद वर्ष 2000 से ट्रस्ट के नाम में परिवर्तन किया गया और कथा यूके सामने आई। मैं इस संस्था का महासचिव हूं। काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी इसकी संरक्षक हैं और हाल ही में वरिष्ठ मीडिया हस्ती श्री कैलाश बुधवार ने कथा यू.के. के अध्यक्ष का पद संभाला है। वर्ष 2000 से सम्मान के लिये आयु सीमा हटा दी गई है और कहानी के साथ साथ उपन्यास भी सम्मान के लिये शामिल कर लिये गये हैं। वर्ष 2000 से ही ब्रिटेन में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य के लिये पद्मानंद साहित्य सम्मान की भी स्थापना की गई।
(९ ) प्रश्न– भारत में हर शहर में संस्थाएं हैं जो साहित्यिक पुरस्कार देती हैं .इंदु शर्मा कथा सम्मान और पद्मानंद साहित्य सम्मान देने के पीछे आपका क्या उद्देश्य है?
उत्तर– प्रीत जी, आपने बिल्कुल ठीक कहा कि भारत में पहले से इतने साहित्यिक सम्मान पहले से दिये जा रहे हैं, तो फिर हमारे सम्मान क्यों। वैसे अब इंदु शर्मा कथा सम्मान को भी 17 साल हो चुके हैं। और तीन वर्षों बाद बीसवां सम्मान समारोह होगा। यानि कि अब हमें भी काम करते हुए कुछ समय तो हो ही गया है। जब पहला इंदु शर्मा कथा सम्मान दिया गया था तो उसके पीछे कुछ अलग किस्म की सोच थी। इंदु जी का निधन उनके चालीस वर्ष पूरे करने से पहले ही कैंसर से हो गया था। उन्होंने मुझे कहानी लिखना सिखाया था। मुझे महसूस होता था कि मैं तो भाग्यशाली था कि मुझे जीवन में इंदु जी मिलीं। मगर हर युवा लेखक तो इतना भाग्यशाली नहीं हो सकता। इसलिये मैं हर लेखक में टुकड़ा टुकड़ा इंदु बांट रहा था। यह सम्मान चालीस वर्ष से कम उम्र के कथाकारों के लिये शुरू किया गया। जब मैं ब्रिटेन में बसने के लिये आ गया तो सम्मान का स्वरूप बदल गया। अब मेरी चाहत हुई कि इसे हिन्दी के बुकर सम्मान का दर्जा मिलना चाहिये। आयु सीमा हटा दी गई और कहानी के साथ उपन्यास भी शामिल कर दिया गया। यह सम्मान शायद हिन्दी के एकमात्र विश्वसनीय सम्मान के रूप में उभर कर सामने आया है। इसका आयोजन हर साल ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ लॉर्डस या हाउस ऑफ़ कॉमन्स में किया जाता है। भारतीय उच्चायोग इस सम्मान के साथ संपूर्ण रूप से जुड़ा हुआ है। पद्मानंद साहित्य सम्मान मूलतः ब्रिटेन में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य का आकलन है और उसे विश्व पटल पर स्थापित करने का प्रयास है।
(१०) प्रश्न– विदेशों में रह रहे हिंदी रचनाकारों की रचनाओं के साथ प्रवासी शब्द का उपयोग किया जाता है हिंदी की कई पत्रिकाओं में। क्या आप इससे सहमत हैं या असहमत ?
उत्तर—यह सवाल मेरे दिल के बहुत निकट है। मैंने पहली बार दुबई में हुए खाड़ी सम्मेलन में यह सवाल उठाया था कि क्या दुनियां की किसी भी और भाषा में प्रवासी साहित्य पाया जाता है? ब्रिटेन, हॉलेण्ड, फ़्रांस, पुर्तगाल आदि ने विश्व भर में अपनी कॉलोनियां बनाईं। क्या उनकी भाषाओं में प्रवासी साहित्य मौजूद है। विश्व के हर बड़े शहर में एक चाइना टाउन होती है। क्या चीनी भाषा में प्रवासी साहित्य मौजूद है। फिर हिन्दी की यह समस्या क्यों है? विदेशों में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य को सीधा सादा हिन्दी साहित्य मानने में क्या अड़चन है। दरअसल हिन्दी साहित्य पहले ही ख़ांचों में बंटा हुआ है – कहीं स्त्री लेखन है तो कहीं दलित लेखन। अब यह प्रवासी साहित्य का शोशा। दरअसल प्रवासी साहित्य तो सीधा सादा व्यापार का सिलसिला बन गया है। उन्हें हिन्दी के बाज़ारवाद में भुनवाया जा रहा है। प्रवासी विशेषांक, प्रवासी सम्मेलन आदि आदि। क्या मॉरीशस, सुरीनाम, अमरीका, फ़िजी, ब्रिटेन, युरोप, खाड़ी देशों का हिन्दी साहित्य एक सा ही है जिसे प्रवासी शीर्षक के तले रखा जा सके। मुझे तो लगता है कि यह एक षड़यंत्र है ताकि विदेशों में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य को मुख्यधारा के साहित्य से अलग रखा जा सके। जब हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा जाए तो विदेशों में लिखने वालों को केवल एक पैराग्राफ़ में निपटा दिया जाए। मुझे लगता है कि साहित्य जहां जहां रचा जा रहा है, उसमें वहां की सुगन्ध और स्वाद आना चाहिये। हमारे लेखन को पत्रिकाओं के नॉर्मल अंकों में छापा जाए। हमें प्रवासी विशेषांकों का मोहताज ना बनाइये।
(११) प्रश्न–क्या आप विदेश में रहकर वहाँ की संस्कृति,सभ्यता,रीति-रिवाज और भाषा से स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस कर पाते हैं ?
उत्तर–पहली पीढ़ी के प्रवासी के लिये यह आसान नहीं होता कि वह अपने अपनाए हुए देश की संस्कृति, सभ्यता और रीति-रिवाज से पूरी तरह जुड़ पाए। उसकी जड़ें अपनी मातृभूमि, संस्कारों एवं भाषा से जुड़ी होती हैं। उससे इस बात की अपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिये। हां यह आवश्यक है कि उसे इन सब बातों के प्रति कोई रिज़र्वेशन भी नहीं होनी चाहिये। सौभाग्यवश मैं जिस देश में रहता हूं वहां की भाषा मुझे स्थानीय लोगों से बेहतर आती है। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. अंग्रेज़ी में की है। शायद वही मेरे काम भी आ रही है। सच तो यह है कि स्थानीय लोग कभी कभी मेरे अंग्रेज़ी ज्ञान के प्रति ईर्ष्या व्यक्त कर चुके हैं। लंदन में विविधता इतनी है कि कोई एक सभ्यता ना तो दिखाई देती है और ना ही सुनाई। यदि हमें इंगलैण्ड की पुरानी परंपराओं को समझना है तो हमें बड़े शहरों से बाहर जाना होगा। मैं ब्रिटेन की कुछ बातों का क़ायल हूं। यहां आम आदमी की बहुत क़दर है। यहां इन्सान को इन्सान समझा जाता है। यहां टुच्चा भ्रष्टाचार नहीं है। एक हज़ार पाउण्ड के घोटाले के लिये भी सांसदों को त्यागपत्र देना पड़ता है बल्कि जेल तक भी हो गई है। विकलांगों के लिये जो सुविधाएं यहां मौजूद हैं उनको देख कर लगता है कि ना जाने हम किस ग्रह पर रह रहे हैं। हम जिस भारतीय संस्कृति की डींगें मारते हैं, वो संस्कृति यहां प्रेक्टिकल रूप में दिखाई दे जाती है। सच्चा समाजवाद अगर कहीं देखा है तो सामंतवाद के इस गढ़ में देखा है।
(१२) प्रश्न– आपके द्वारा रचित पुस्तकों के बारे में बताएँ (चाहे वे कहानी-संग्रह ,कविता संग्रह,समीक्षात्मक पुस्तकें ही क्यों न हो ); और इन पुस्तकों में किन-किन विषयों को लिया गया है?
उत्तर—प्रीत जी तरीके से तो आपको स्वयं मेरी रचनाओं के बारे में मुझे बताना चाहिए कि आप को कैसी लगती हैं। फिर भी आप को बता देता हूँ कि आज तक जो मेरे कहानी संग्रह छपे हैं उनके नाम हैं काला सागर, ढिबरी टाईट, देह की कीमत, ये क्या हो गया, बेघर आँखें, क़ब्र का मुनाफ़ा, और सीधी रेखा की परतें ( जिस में मेरे पहले तीन कहानी संग्रह समग्र भाग-1 के तौर पर छपे हैं)। एक कहानी संग्रह दीवार में रास्ता प्रकाशक के पास प्रकाशनार्थ पड़ा है जिसमें 16 कहानियां शामिल हैं जो विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। मेरा एक कविता और ग़ज़ल संग्रह भी प्राकशित हो चुका है जिसका नाम है ये घर तुम्हारा है। मैंने चार पुस्तकों का सम्पादन किया है जिस में प्रवासी कविता, ग़ज़ल और कहानी के संकलन शामिल हैं। मेरे कुछ अन्य भाषाओँ में भी कहानी संकलन प्रकाशित हो चुके हैं – ईंटों का जंगल (उर्दू), पासपोर्ट का रङहरू (नेपाली), ढिबरी टाईट एवं कल फेर आंवीं (पंजाबी)। अंग्रेजी में मेरी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ब्लैक एंड वाईट (एक बैंकर की जीवनी), लॉर्ड बायरन, जॉन कीट्स । वैसे एक आलोचनात्मक ग्रन्थ मेरे साहित्य पर भी प्रकाशित हो चुका है तेजेंद्र शर्मा – वक़्त के आइने में जिसका सम्पादन कथाकार हरी भटनागर ने किया है। मेरे लेखन कि एक विशेषता ही कि मैं विजेता के साथ जश्न नहीं मना पाता। मैं हमेशा अपने आप को हारे हुए इंसान के साथ खड़ा पाता हूँ। ब्रिटेन में बसने के बाद मेरे साहित्य के विषयों में बदलाव आया है। आज मैं विदेशों में बसे भारतीयों की समस्याओं, उपलब्धिओं और संघर्ष की ओर अधिक ध्यान देता हूँ। मैं देखता हूँ कि मेरे चारों ओर जीवन अर्थ से संचालित है, रिश्तों में खोखलापन समा रहा है, बाज़ारवाद इंसान कि सोच को अपने शिकंजे में कसता जा रहा है। पैदा होने से मृत्यु तक हम कैसे बाज़ार के नियमों तले दब रहे हैं, ये सब मेरे साहित्य में परिलक्षित होता है।
(१३) प्रश्न— टेलीविज़न के बहुचर्चित सीरियल शांति में आपका क्या योगदान रहा है ? क्या इससे आपको प्रसिद्धि प्राप्त हुई ?
उत्तर– हुआ यूं कि मेरे मित्र दिनेश ठाकुर को शांति सीरियल के मुख्य पात्र का रोल करने को कहा गया। जो कलाकार पहले रोल कर रहा था उसकी टी.आर.पी. में कुछ कमी आ गई थी। दिनेश ने यू.टी.वी. को मेरा नाम सुझाया। वैसे भी वे लोग किसी साहित्यिक लेखक को अपनी टीम में शामिल करना चाहते थे। मुझे इससे पहले टी.वी. लेखन का कोई अनुभव नहीं था। मैनें कभी भी फ़िल्मी लेखन को साहित्य के मुक़ाबले दोयम दर्जे का नहीं माना। मुझे लगता है कि दोनों तरह के लेखन एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं। मैं प्रेमचन्द की सोच से इत्तेफ़ाक नहीं रखता कि साहित्य दूध होने का दावेदार है जबकि सिनेमा ताड़ी या शराब की भूख को शान्त करता है। मैं कमलेश्वर और मनोहर श्याम जोशी को इस मामले में आदर्श मानता हूं जिन्होंने साहित्य और सिनेमा में एक ख़ूबसूरत समन्वय बना कर रखा। मुझे एपिसोड लिखने का काम मिला। हम तीन लेखक आपस में बांट कर एपिसोड लिखा करते थे। समीर की कहानी थी और हम तीनों उस कहानी से एपिसोड बनाते थे। मुझे कोर्ट के सीनों का एक्सपर्ट माना जाता था। मुझे इस सिलसिले में एक वकील के साथ प्रशिक्षण के लिये भी भेजा गया। शुरू शुरू में मेरे निर्देशक ने शिक़ायत की कि मैं लम्बे लम्बे संवाद लिखता हूं। उसका कहना था कि उसे कैमरा रखने में मुश्किल होती है। तीन तीन कैमरे काम कर रहे हैं, अगर डॉयलॉग छोटे होंगे तो उसे कैमरा प्लेस करने में अधिक सुविधा होगी। मेरी केवल एक ही शर्त थी कि यदि मेरा लिखा हुआ बदलना है तो वह मैं ही बदलूंगा। कोई कलाकार या निर्देशक नहीं। मेरी यह बात उन्होंने मान ली। शांति के बाद की मेरी कहानियों में आप संवादों का अच्छा इस्तेमाल पाएंगे। मुझे लगता है कि संवाद बहुत बार कहानी को बेहतर ढंग से आगे बढ़ा सकते हैं। मेरे लिखे हुए संवाद भी जीवन से जुड़ी भाषा में होते थे। मैं राजकुमार टाइप भारी भरकम डॉयलॉग में विश्वास नहीं रखता। फिर भी कभी कभी सीन की मांग पर ऐसा करना पड़ता था। प्रसिद्धि अवश्य मिली लेकिन उस प्रसिद्धि को कैश करने से पहले ही मैं भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा बन गया…. यानि कि लंदन में बसने के लिये आ गया। मगर आज भी जिन लोगों ने शांति सीरियल देख रखा है उनको जब पता चलता है कि मैं भी उसके लेखन से जुड़ा था, तो अचानक उनकी आंखों में मेरे प्रति आदर बढ़ जाता है।
(१४) प्रश्न—आज की हिंदी आलोचना के बारे में आपका क्या विचार है ?
उत्तर— हमारी पीढ़ी के साहित्यकारों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हमने अपने आलोचक नहीं पैदा किये। हम आज भी उन्हीं आलोचकों की ओर देखते हैं जो कि पिचहत्तर और अस्सी पार कर चुके हैं। एक लम्बे अर्से से हिन्दी साहित्य में आलोचना किसी गुट विशेष के लेखकों को उछालती रही है। यदि आप उस विचारधारा के गुट के हैं तो आपके साहित्य की समीक्षा होगी, आपकी चर्चा होगी वर्ना आप जगदीश चंद्र, पानू खोलिया, सुरेन्द्र अरोड़ा की तरह गुमनाम रह जाएंगे। मुझे याद पड़ता है एक पत्रिका हुआ करती थी ‘पहल’। उसके संपादक उस पत्रिका में एक सूचना प्रकाशित किया करते थे – ‘कृप्या हमें रचना ना भेजें। यदि हमें आवश्यक्ता होगी तो हम स्वयं आपसे रचना मंगवा लेंगे।’ यानि कि वे किसी विचारधारा विशेष की रचनाएं ही छापना चाहते थे। आलोचना आपके लिखे साहित्य की नहीं होती। आलोचना आपकी निजि सोच, निजि विचारधारा की होती है। और सबसे महत्वपूर्ण बात कि आपकी समीक्षक के साथ कैसी पहचान है। जबसे मुख्यधारा सिमट कर पांच सात सौ लोगों तक रह गई है, लेखक ही पाठक भी बन गये हैं। साहित्य का जनाधार लगभग समाप्त हो चुका है। मुझे एक कहानी याद आती है ‘कामरेड का कोट’। उस कहानी को इतना उछाला गया कि उसका लेखक उसके बाद कुछ नहीं लिख पाया। पिछली तीन पीढ़ियां नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव से शाबाशी पाने की लालसा में साहित्य रचती रही है। जमशेदपुर की विजय शर्मा, दिल्ली के अजय नावरिया और साधना अग्रवाल व वर्धा के शंभु गुप्त में संभावनाएं हैं कि यदि वे आलोचना को गंभीरता से लें, तो हमारी पीढ़ी को सशक्त आलोचक मिल सकते हैं। पुरानी पीढ़ी नये साहित्य को भी पुरानी दृष्टि से देखती है। हमारे सरोकार उन तक पहुंच नहीं पाते। और ख़ास तौर पर प्रवासी सरोकार तो पुरानी पीढ़ी के आलोचकों की समझ के दायरे में बिल्कुल नहीं आते।
(१५) प्रश्न— तेजेन्द्र जी जो भारतीय परिवार विदेशों में जाकर पूर्ण रूप से बस गए हैं ? क्या उन परिवारों के बुजुर्गों को एंकाकीपन खलता है ? इस बारे में आपकी क्या राय है ?
उत्तर— आपने बहुत सही सवाल पूछा है। आपके सवाल के दो पहलू हैं। एक जो भारतीय परिवार विदेशों में जा कर बस गये हैं उन परिवारों के बुज़ुर्गों को विदेश में एकाकी पन खलता है? और दूसरा पहलू है कि जो भारतीय परिवार विदेशों में जा कर बस गये हैं उन परिवारों के बुज़ुर्गों को भारत में एकाकीपन खलता है? दोनों ही स्थितियां बुज़ुर्गों के लिये सहानुभति पैदा करती हैं। बच्चों के विदेश में बस जाने के बाद जब मां बाप अकेले भारत में रह जाते हैं तो उनके अकेलेपन की ख़लिश उन्हें कचोटती रहती है। बच्चे पैसे भेज कर अकेलेपन की भरपाई करते हैं। मगर यह मां-बाप के ख़ालीपन को भर नहीं पाता। किन्तु मां बाप के पास एक तसल्ली होती है कि वे अपनी ज़मीन से कटे नहीं होते। उसी जगह रह रहे होते हैं जहां कभी उन्होंने संघर्ष किया था और उनके संघर्ष के साथी, पड़ोसी उनका साथ देते हैं। विदेश में स्थिति और भी भयावह है। वहां दूसरी और तीसरी पीढ़ी इतनी आत्ममगन है कि बूढ़े दादा दादी बहुत अकेले पड़ जाते हैं। वे बातचीत का हिस्सा बनना चाहते हैं मगर घर की नकारा वस्तुओं की तरह महसूस करने लगते हैं। अब क्योंकि ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोग ख़ासी बड़ी संख्या में बस गये हैं; सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियां बढ़ गई हैं; इसलिये हमारे बुज़ुर्ग किसी न किसी तरह अपने आपको व्यस्त रख पाते हैं। बहुत से भारतीय बुज़ुर्गों की दोहरी समस्या है। उनका प्रवासन पहले भारत में हुआ जब पाकिस्तान बना या वे प्रवास करने अफ़्रीका गये। उनका दूसरा प्रवासन हुआ जब उनकी अगली पीढ़ी विदेश रहने आ गई या फिर इदी अमीन ने उनको अफ़्रीका से निकाल फेंका। यह दोहरे प्रवासन की मार का असर बहुत गहरा है। मगर फिर भी शारीरिक तौर पर स्वस्थ बुज़ुर्ग अपने आपको किसी ना किसी सामाजिक काम से जोड़े रखते हैं। मैं कुछ ऐसे लोगों से परिचित हूं जो कि उम्र में सत्तर साल से अधिक हैं और वे सप्ताह में एक या दो दिन हस्पतालों में जाकर वॉलंटीयर का काम करते हैं और मरीज़ों की सहायता करते हैं। वैसे अकेलापन मैनें स्थानीय अंग्रेज़ों के बुज़ुर्गों में कहीं अधिक देखा है, जिनके बच्चे उन्हें केवल मदर्ज़ डे, फ़ादर्ज़ डे या फिर क्रिसमिस पर ही याद करते हैं। वर्ना वे ओल्ड पीपल्ज़ होम में जीवन बिता देते हैं – चेहरों पर एक अजीब सा ख़ालीपन लिये।
(१६) प्रश्न—– आपने बिल्कुल ठीक कहा कि बुजुर्ग वर्ग ओल्ड पीपल्ज़ होम में जीवन बिता देतें हैं – चेहरों पर एक अजीब सा ख़ालीपन लिये, पर क्या विदेश में ऐसी कोई संस्थाएँ हैं, जो युवा वर्ग को अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए शिक्षाप्रद कार्यक्रम करती हो जिससे वे भारतीय सँस्कृति और संस्कारों को सुरक्षित रख सकें.
उत्तर–बात यह है प्रीत कि ओल्ड पीपल्ज़ होम बनाए ही इसीलिये गये थे क्योंकि ब्रिटेन के स्थानीय बूढ़े मांबाप को उनके बच्चे अकेला छोड़ अपनी ज़िन्दगी जीना शुरू कर देते थे। सरकार ने सोचा कि बूढ़े मां बाप अकेले सड़कों पर जीने को मजबूर न हो जाएं इसलिये उनके रहने के लिये प्रावधान किया गया। वहीं एक दूसरे तरह के भी ओल्ड पीपल्ज़ होम मौजूद हैं जहां बूढ़े मां बाप के बच्चे हर महीने के पैसे देते हैं और उनकी देखभाल वहां करवाते हैं। इसका कारण यह है कि बेटा और बहू नौकरी करते हैं और अपने बूढ़े मांबाप को अकेला घर में नहीं छोड़ना चाहते। ब्रिटेन में क़रीब 20 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं। अभी यह नहीं देखा गया कि भारतीय मूल के मां बाप बड़ी संख्या में ओल्ड पीपल्ज़ होम में दिखाई दे रहे हों। यह एक स्थानीय समस्य़ा है जो आहिस्ता आहिस्ता भारतवंशियों तक पहुंच रही है। जहां तक भारतीय संस्कृति और संस्कारों की बात है तो भारतीय विद्या भवन के साथ साथ ऐसी बहुत से संस्थाएं हैं जो कि इस सब के लिये काम कर रही हैं। यहां मंदिर और गुरूद्वारे केवल धार्मिक स्थल नहीं हैं। यह सामुदायिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं का काम भी निभाती हैं। कथा यू.के. हिन्दी साहित्य के लिये काम कर रही है तो यू.के. हिन्दी समिति हिन्दी शिक्षण के प्रति कटिबद्ध है। भारतीय उच्चायोग इसमें बहुत महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। पिछले वर्ष उच्चायोग ने स्वतंत्रता दिवस को भी आम भारतवंशी के लिये एक अनुष्ठान बना दिया।
(१७) प्रश्न—-कहते हैं कि सफलता के पीछे किसी का हाथ होता है . आपकी सफलता के पीछे किसका हाथ है ?
उत्तरः आपके प्रश्न का उत्तर देने का अर्थ है कि मैं पहले आपकी बात से सहमत हूं कि मैं सफल हूं। मुझे नहीं पता कि सफलता के आपके मानदण्ड क्या हैं। मैं एक कहानीकार हूं जो कि हाशिये पर है। विदेशों में हिन्दी भाषा और साहित्य को स्थापित करने में संघर्षरत हूं। सभी हिन्दी प्रेमियों एवं साहित्यकारों का स्नेह मिलता रहा है, शायद इसीलिये एक के बाद एक कार्यक्रम और आयोजन होते चले गये। जब कभी मुझे ऐसा अहसास होगा कि मैं एक सफल व्यक्ति हूं, मैं अवश्य जानने का प्रयास करूंगा कि मेरी सफलता के पीछे किस मित्र का हाथ है। यह सच है कि जीवन के इस मुकाम पर भी संघर्ष करने से डरता नहीं।
(१८ )प्रश्न—–ब्रिटेन की युवा पीढ़ी के बारे में आप क्या कहेंगे ?
उत्तर— यह सवाल बहुत गहरा है और बहुत लम्बा जवाब मांगता है। कोशिश करता हूँ कि कम से कम फ़ुटेज खाते हुए जवाब दे सकूं। कुछ साल पहले ब्रिटेन में एक सर्वेक्षण करवाया गया था जिसके नतीजे बहुत चौंका देने वाले थे। यहाँ के क़रीब पचीस प्रतिशत युवा युद्ध की परिस्थितियों में अपने देश के लिए लड़ने के लिए तैयार नहीं थे। मैंने इस सर्वेक्षण से घबरा कर एक कविता भी लिखी थी। कितना भयावह ख़्याल है कि आपके देश के युवा वर्ग के मन में अपने देश के प्रति ज़रा भी देशभक्ति का भाव ना हो। मारग्रेट थैचर जब ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थीं उन्होंने एक क़ानून बनाया था कि माता पिता अपने बच्चों को शारीरिक दण्ड नहीं दे सकते। यहां बच्चों के मानवीय अधिकारों की रक्षा को बहुत गंभीरता से लिया गया और लिया जाता भी है। बच्चों के सिर से डंडा ग़ायब हो गया। तो युवा पीढ़ी आत्मकेंद्रित होती चली गई। फिर जो मध्य वर्गीय बच्चे यहां विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं वे सभी सरकारी लोन ले कर पढ़ाई करते हैं। जब नौकरी लग जाती है तो अपना कर्ज़ा उतार लेते हैं। इससे भी बच्चों के मन में यह भावना घर कर जाती है कि मां बाप ने उन पर कोई ख़ास ख़र्चा तो किया नहीं। बच्चा बहुत जल्दी परिवार से दूर एक स्वतंत्र व्यक्तित्व बना लेता है। फिर विवाह नाम की संस्था यहां अपना आकर्षण खो चुकी है। शादी से पहले सेक्स ने उसे और अधिक बेकार की संस्था बना दिया है। टूटे परिवारों के बच्चे वैसे भी संस्कारों के मामले में ग़रीब रह जाते हैं। भारतवंशी बच्चे भी बहुत अलग नहीं हैं। जहां मां बाप अमीर है और उनके पास पैसा और प्रॉपर्टी है, उनके बच्चों का व्यवहार अलग है और जहां मां बाप संघर्षशील हैं, उनके बच्चे जल्दी से अपना अलग संसार बसा लेते हैं। अब ओल्ड पीपल्ज़ होम में भारतीय मूल के लोग भी दिखाई देते हैं। मेरा अपनी सोच यह है कि अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद किसी ओल्ड पीपल्ज़ होम में जा कर उन की सेवा करूं जिनके हाथ पांव जवाब दे गये हैं। वहीं रहूं, वहीं सेवा करूं और वहीं करूं अपने अंतिम दिनों का लेखन।
(१९) प्रश्न–तेजेंद्र जी किसी भी कहानी की रचना-प्रक्रिया में मुख्य रूप से किन-किन बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए ?
उत्तर–रचना प्रक्रिया कोई वैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं है। हर लेखक कहानी अपने ढंग से लिखता है। मैं स्वयं भी हर कहानी एक ही ढंग से नहीं लिखता। कभी कभी कोई घटना दिल पर ऐसा असर करती है कि अपने आपको कहानी को रूप में लिखवा कर ही दम लेती है। कभी कभी कोई व्यक्ति कोई एक बात कह जाता है तो वो बात ही इतना आंदोलित कर जाती है कि कहानी का रूप धारण कर लेती है। जैसे मैं देह की कीमत के किसी चरित्र से स्वयं नहीं मिला। बस मेरे एक मित्र ने यह दो पंक्तियों की घटना मुझे विमान में सुना दी थी। मगर उस घटना ने मेरी नींद हराम कर दी और जब तक कहानी नहीं लिखी गई वो तीन चार महीने मेरे लिये तनाव की पराकाष्ठा थे। लंदन में एक महिला अपने निजी जीवन के विषय में बात करते करते रो पड़ी और उसने कहा कि अब तो लगता है कि कोई मेरा रेप ही करदे तो शायद सुख के कुछ क्षण मुझे नसीब हो जाएं। उस एक वाक्य ने कल फिर आना जैसी कहानी लिखवा दी जो कि हंस में प्रकाशित हुई और उसकी बहुत चर्चा भी हुई। फिर भी एक बात कहना चाहूंगा कि घटना कहानी नहीं होती। घटना को कहानी के रूप में लिखने की जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिये। घटना स्थूल है, उसके पीछे की सूक्ष्म भावनाओं को पकड़ना होगा। उसमें लेखक अपनी कल्पना शक्ति एवं उद्देश्य का तड़का लगाए, तब कहीं कहानी का जन्म होता है। कहानी को अंतिम रूप देने से पहले जुगाली करना बहुत ज़रूरी है। जब तक लेखक स्वयं कहानी से संतुष्ट ना हो जाए, उसे कहानी प्रकाशन के लिये नहीं भेजनी चाहिये। कई बार लेखक कहानी की सामग्री को कहानी समझ कर छपने के लिये भेज देता है। कहानी की सामग्री और कहानी में अंतर स्पष्ट होना बहुत ज़रूरी है।
(२०) प्रश्न—आप आज के युवा रचनाकारों और हिन्दी साहित्य प्रेमियों को क्या सन्देश देना चाहेंगे
उत्तर– प्रीत जी, आपके प्रश्न से लगता है कि जैसे मैं कोई बड़ा वरिष्ठ लेखक बन गया हूं जिसे युवा रचनाकारों को संदेश देने का हक़ मिल गया है। दरअसल मैं तो स्वयं अभी अपने आपको साहित्य का विद्यार्थी मानता हूं। मैं युवा लेखकों से स्वयं कुछ सीखने का प्रयास करता हूं। जब मैं किसी युवा लेखक की रचना पढ़ता हूं तो पाता हूं कि यह पीढ़ी आत्मविश्वास से भरपूर है। पंकज सुबीर, मनीषा कुलश्रेष्ठ, वंदना राग, प्रत्यक्षा, संजय कुंदन, अजय नावरिया, अल्पना मिश्र के साथ साथ और बहुत से नाम हैं जो कि बेहतरीन कहानियां लिख रहे हैं। इनमें से कुछ एक नाम तो स्थापित लेखक बन चुके हैं और उन्हें कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। फिर भी इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि यह पीढ़ी इस बात की परवाह ना करे कि पुराने स्थापित या वरिष्ठ आलोचक इनकी रचनाओं के बारे में क्या राय रखते हैं। इस पीढ़ी को अपने लिए लिखना है; अपने पाठकों के लिये लिखना है। सबसे बड़ी बात कि इस पीढ़ी को अपने आलोचक भी स्वयं पैदा करने होंगे। हमारी पीढ़ी की समस्या यही रही कि हमारी पीढ़ी उन आलोचकों की ओर देखती रही जिन्हें हमारे सरोकारों से कोई वास्ता नहीं था। आज के युवा आलोचक साहित्य की समीक्षा तो कर रहे हैं मगर हमें उनसे अपेक्षा है कि वे आलोचना को नई परिभाषाएं भी दें। विदेशों में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य को भी प्रतीक्षा है कि कोई उस ओर गंभीरता से ध्यान दे। हिन्दी पाठकों और प्रेमियों के लिये यह शुभ घड़ी है कि आज का लेखक विचारधारा के दबाव में साहित्य रचना नहीं कर रहा। आज का लेखक पाठक के लिये सृजन करने की ओर कदम बढ़ा चुका है। एक बात युवा लेखकों से भी कहना चाहूंगा और हिन्दी प्रेमियों से भी – साहित्य के लिये सबसे महत्वपूर्ण है कि उसे पढ़ा जाए। युवा लेखक जब तक अच्छा पढ़ेंगे नहीं तो अच्छा लिखेंगे कैसे। और यदि हिन्दी प्रेमी नहीं पढ़ेंगे तो साहित्य बचेगा कैसे।
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