पंछी जैसे आजाद उड़ने की ख्वाहिश
पर
बेड़ियाँ हैं पैरों में पितृसत्तात्मक समाज की
चाह कर भी वो नहीं उड़ पाती
पंख फड़फड़ाते और आँख भर आती
मन
कहता उसका,बगावत करने को
तभी
गूँजने लगती कानों में माँ की शिक्षा
और संस्कार देने लगते दुहाई
ठण्डी आह भर कर
पुनः कोशिश करती
लड़ती अपने विचारों से
आखिर
जीत जाते संस्कार और हार जाती वो
आदर्श समझाते और समझ जाती वो
सीता,द्रौपदी को सम्मुख खड़ा पाकर
गला घोट देती स्वयं अपने अरमानों का
पुनः
एक बार फिर जूझ जाती दुगने उत्साह से
क्योंकि
शायद यही है उसकी नियति
ड़ा प्रीत अरोड़ा
बहुत सुंदर मन के भाव ...
ReplyDeleteबहोत ही सुंदर रचना।
ReplyDeleteअच्छी कविता बधाई... गारो एवं खासी जन जाती में मात्र सत्तात्मक परिवार पाए जाते है ...हम सभी को उनसे सीख लेना चाहिए
ReplyDeleteबहोत ही सुंदर रचना।
ReplyDeleteपुखराज सोनी
बहुत सुंदर
ReplyDeleteशायद यही है उसकी नियति..........yahi sach bhi hai
ReplyDeleteनारी की बेबसी को दर्शाती एक सराहनीय रचना. :)))) वक्त करवट ले रहा है......स्थितयां बदल रहीं है,आज सभी औरते इस बेचारगी से नही गुजर रहीं है.
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