Wednesday 3 April 2013

जगमग दीपज्योति पत्रिका के महिला विशेषांक में मेरे द्वारा लिया गया अनिता कपूर जी का साक्षात्कार



मैं अपने हिस्से के भारत को अपने साथ ले आई हूँ......डॉ अनिता कपूर
होठों पर मधुर मुस्कान , दमकता चेहरा ,सौम्य एवं सुन्दरता का प्रतीक ,माथे पर लाल बिन्दी ,धरती पर उतरती एक साक्षात देवी देखकर प्रत्येक हृदय प्रफुल्लित हो गया.जी हाँ हम बात कर रहे हैं ड़ॉ अनिता कपूर जी की जोकि हिन्दी साहित्य के प्रति अपने प्यार और आस्था को संजोए रखने में पूर्णतः समर्थ हैं.अमरीका में रहकर अनिता जी साहित्यिक गतिविधियों में भागीदारी के साथ-साथ लेखन में भी निरंतर प्रयत्नशील हैं.अनिता जी भारत आई हुई थी. मुझे उनसे दो बार मिलने का सौभाग्य हुआ.अभी हालही में अनिता जी अमरीका वापिस लौटी हैं.ऐसे में उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत हैं-------

प्रश्न--अनिता जी आपका साहित्य के क्षेत्र में कैसे आना हुआ ?
उत्तर--पाठ्यपुस्तक की कवितायें हमसे सबसे पहले रूबरू होती हैं। वहीं से रूचि-सुरुचि की भूमिका जाने-अनजाने बनती है। मेरी भावनाओं ने कब रचना-प्रक्रिया और अभिव्यक्ति की कूँची पकड़ शब्द रूपी रंगों में डुबोकर लिखना शुरू किया, पता ही नहीं चला! माँ कहती है कि, जब बहुत छोटी ही थी, तब पहली छोटी-सी कविता गुड़िया लिखी थी। फिर ज्यों-ज्यों बड़ी होने लगी और समझ आने लगी तो देखा की हमेशा खुद को किताबों में घिरा पाती। पड़ने के लगाव ने धीरे-धीरे लेखन में भी रूचि पैदा कर दी थी। स्कूल-कॉलेज की पत्रिकाओं में रचना भी छपती रही तथा कॉलेज की पत्रिका में  सम्पादन का मौका भी मिला। फिर धीरे-धीरे पत्र-पत्रिकाओं में तथा समाचारपत्रों में भी मेरी लिखी रचनाएँ, खास कर कवितायें प्रकाशित होने लगी। इससे हिम्मत और बढ़ी तथा लिखने से प्यार और जुड़ाव और बढ़ता गया। संवेदनशील मन की छटपटाहट, जिंदगी का कभी मुसकुराना और कभी रूठना, जीवन की लकीरें-कभी पूर्णविराम कभी अर्धविराम, कभी प्रश्नवाचक-सभी को कलम की नोक से भावनाओं की स्याही में डुबोकर लेखन करती रही। कभी बेबसी का बगावत करना और आँधी का अंधी गलियों से गुजरना रफ्ता-रफ्ता साहित्य के मैदान में ले आया।

प्रश्न--हमने सुना है कि आप पत्रकार भी हैं तो इस क्षेत्र की ओर आपका रूझान कैसे हुआ?
उत्तर---जी प्रीत, जैसे की अभी आपको बताया कि, कॉलेज मे वार्षिक पत्रिका संपादित करने का भी अवसर मिला था, लगातार कई वर्षों तक सम्पादन किया। रुझान होने के कारण उस समय मन में तय तो कर ही लिया था कि बस अब जीवन का उद्देश्य मिल गया है, और अब पत्रकार ही बनना है। कॉलेज खतम होने से लेकर अमेरिका आने तक की ज़िदगी की यात्रा के दौरान, ऊबड़-खाबड़ रास्तों को सही सलामती से पार करने की जद्दोजहद और गृहस्थी के कर्तव्यों को निभाते-निभाते, पत्रकारिता कहीं पीछे छूट गयी थी, पर मन के किसी कोने में चुपके नन्ही बच्ची सी दुबकी रही। लेखन तो गाहे-बगाहे चलता रहा और छपता भी रहा। क्योंकि सैलाब को तो बहना ही था, इसी बहाव में चार कविता-संग्रह भी प्रकाशित हो गए। समाचार-पत्रों की दुनिया की एक अलग ही खुशबू और अपना एक आकाश होता है। जहां सिर्फ शब्द ही चारों और दिखाई देते है। अमेरिका आते ही सबसे पहले यहाँ हिन्दी के समाचारपत्र और पत्रिकाएँ ढूंढनी शुरू कीं। पर चौदह वर्ष पहले हिन्दी उतनी मुखर नहीं थी जितनी आज है। फिर भी लिखने के मौके तो मिलते रहे, पर उन गिने-चुने समाचारपत्रों की उम्र छोटी रही, जिसमे मैं लिखती थी। तब एक दिन मन के कोने में दुबकी पत्रकारिता रूपी नन्ही बच्ची ने इतना उकसाया की आज स्वयं एक हिन्दी समाचारपत्र यादें के नाम से संपादित कर रही हूँ।
प्रश्न--भारतीय लेखिकाओं में आपकी पसंदीदा लेखिकाएं कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर--यूं तो बहुत सी लेखिकाएँ है, जिनको पड़ती आ रही हूँ और वे अपने-अपने लेखन के अंदाज़ के लिए पसंद की जाती  हैं। हाँ शिवानी जी और अमृता प्रीतम जी हमेशा से पहली पसंद रही है। आज तक मैंने शिवानी जी के हाथ से लिखा पोस्टकार्ड (उन दिनों तो पोस्टकार्ड का ज़माना था) सहेज कर रखा हुआ है, जो उन्होने किसी पत्रिका में मेरी एक कविता पढ़ कर आशीर्वाद के रूप में भेजा था। पर अफसोस कि, दोनों से कभी रूबरू मिलना न हो सका। सुधा ओम ढींगरा जी, चित्रा मुद्गल जी, सूर्य बाला जी, मनीषा कुलश्रेष्ठ जी की कहानियाँ, रचना श्रीवास्तव, हरकीरत हक़ीर, अनामिका, रेखा मैत्र जी तथा सुदर्शन प्रियदर्शिनी जी की कवितायें भावना कुँवर, हरजीत संधु तथा सुधा गुप्ता जी के लिखे हाइकु भी बहुत पसंद है।
प्रश्न--अनीता जी जैसेकि आप अभी भारत से वापिस अमरीका लौटी हैं.तो आपको भारत और अमरीका में से कहाँ अधिक रहना पसंद है और क्यों?
उत्तर---प्रीत जी यह सवाल पूछ कर आपने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है। परिस्थितियां और किस्मत अमेरिका ले आई तो शुरू के कुछ अरसे तो यही लगता रहा कि कहीं अपने अस्तित्व को भूल न जाऊं और यहाँ की रफ्तार भरी जिंदगी में लेखन कहीं पिछले पायदान पर न छूट जाये। ऐसा कुछ अरसा हुआ भी, फिर अचानक से जैसे अपना वजूद खतरे में दिखाई देने लगा, ऐसे महसूस हुआ कि, लेखन के बिना तो सांस लेना मुश्किल होने लगा है...इसके पहले की कहीं फेफड़ें खराब ना हो जाएँ....:) एक निश्चित अंतराल के बाद अपनी धरती, भारत से अपने वतन की हवा और खुशबू की औक्सीजन लाना जरूरी हो गया है।  बस, उसके बाद तो दोनों जगह ही रहना, पसंद आने तो लगा है, बावजूद इसके निरंतर यही एहसास होता है, जैसे अपनी रूह का एक कोना अपनी धरती के खूँटे से बंधा छोड़ आई हूँ। आज के वैज्ञानिक युग में इंटरनेट और फेस्बूक के जरिये आप सभी से जुड़ा हुआ महसूस करती हूँ तो राहत मिल जाती है, खुद को दूर नहीं पाती। मैं अपने हिस्से के भारत को अपने साथ ले आई हूँ। यहाँ भी हमने एक छोटा सा भारत बसा लिया है।
प्रश्न--आपके काव्य-संग्रह 'साँसों के हस्ताक्षर में से आपकी सर्वाधिक प्रिय कविता कौन सी है और क्यों
उत्तर---यह तो आपने प्रीत जी किसी माँ से यह पूछ लिया हो कि, उसको अपना कौन सा बच्चा अधिक प्यारा है? यह बता पाना तो वैसे काफी मुश्किल है क्योंकि मैंने आत्म-सर्जन को बड़ा मूल्य चुकाकर पाया और कमाया है। फिर भी सीधी बातकविता दिल के ज्यादा करीब है क्योंकि इसमे जगत की जड़ता, संसार की असारता, यौवन की हरियाली और भयावने वीरान रेगिस्तान के रंगो के उपरांत की सीधी बातही नहीं, उसके नेपथ्य में घटित दुखते लम्हों के हस्ताक्षर भी हैं। हालांकि मेरे चार कविता-संग्रह पहले भी आ चुके है पर साँसों के हस्ताक्षरकविता-संग्रह मेरे दिल के बहुत करीब है, मेरे जीवन के दस्तावेज़ की तरह।
प्रश्न--अनिता जी आजकल हाइकु विधा बहुत प्रचलित है।  हाइकु और ताँका पर आधारित आपकी किताब 'दर्पण के सवाल' भी प्रकाशित हुई है। तो हाइकु लिखने में विशेष तौर पर किन-किन बातों पर ध्यान रखना पड़ता है?
उत्तर--जी आजकल हाइकु विधा काफी प्रचलित है और यह एक जापानी शैली है जिसमे सिर्फ तीन पंक्तियों में [5+7+5 =17] वर्ण (मात्राएँ नहीं) का निर्वाह होता, जिसमे भाव, विचार और कल्पना समाहित होते हैं। मैंने जब पहली बार हाइकु लिखा तो तत्काल जो विचार दिमाग में उपजा था वो यह कि, जैसे कविता एक बड़ा वृक्ष हो और हाइकु 17 पतियों वाला एक बोंजाई, मगर एक पूरा काव्य इसमे समाहित है। हाइकु कविता का संबंध क्षणिक अनुभूति से है, इसीलिए इसे क्षण-काव्य भी कहते हैं। हाइकु की एक प्रमुख विशेषता है की इसको संकेतों में, कम शब्दों में लिखा जाना और अधिक समझा जाना है। लघुता हाइकु का विशेष आकर्षण है, इसकी ताकत है। शब्द-साधना, जीवन-दर्शन और गहन मार्मिक अनुभूति को अल्पतम शब्दों में व्यक्त करना हाइकु रचना की सबसे बड़ी चुनौती है। उधाहरण के तौर पर आप यह एक हाइकु देखें:
चेहरे पर
हो झुर्रियां बेशक
रूह पे नहीं

प्रश्न--आप आजकल सम्पादन का कार्यभार भी सँभाल रही हैंयह अनुभव आपके लिए कैसा है। खासतौर पर 'यादें' अखबार के सम्पादन से आपको क्या-क्या उम्मीदें हैं?
उत्तर---जी यादेंसमाचार पत्र के सम्पादन का कार्यभार संभाला है और यह एक चुनौती भरा कार्य है, खासतौर पर जहां अँग्रेजी का बोलबाला हो। उसके बीच अपनी भाषा की अलख जगाना तो आसान है पर उसे जगाए रखना किसी अग्नि परीक्षा से गुजरने जैसा होता है। सम्पादन के कार्य से हर रोज़ कुछ नया करने और सीखने को मिलता है। दुनिया बहुत करीब लगती है। फिलहाल सारा ध्यान इसी में है कि यादेंको और बेहतर कैसे बनाया जाये, और सभी वर्ग के लोगों और उनकी पसंद की पठनीय और रोचक सामग्री पाठकों तक पहुंचाई जा सके। है। मुझे पूरा विश्वास है कि, पाठकों के सहयोग और स्नेह के चलते यह कदम एक बड़े काफिले में अवश्य बदलेगा। सच तो यह है कि कोई भी पत्र अपने लेखकों और पाठकों के बलबूते पर ही निरंतरता पाता है।
प्रश्न--अनिता जी आप अमरीका में हिन्दी संस्था 'विश्व हिन्दी ज्योति' की संस्थापक भी है तो इस संस्था द्वारा विशेष रूप से क्या-क्या कार्य किए जाते हैं
उत्तर--प्रीत जी वैसे तो संस्था के नाम से ही पता चल जाता है की संस्था क्या कार्य करती है। हमारी संस्था और संस्था से जुड़े हुए लोग हिन्दी के प्रचार-प्रसार के कार्य में जी जान से जुड़े है। संस्था की तरफ से हिन्दी पढ़ाने का काम किया जाता है। हिन्दी के साथ-साथ बच्चों को धर्म, संस्कृति  और त्योहारों की भी जानकारी दी जाती है। साहित्य में रूचि पैदा करने के लिए बच्चों के लिए कविता और गद्य प्रतयोगिता करते हैं। समय-समय पर हमारी संस्था काव्य-गोष्ठी और कवि-सम्मेलन भी आयोजित करती रहती है। आप समझ लें की यह संस्था एक हवन-कुंड है और हमारे प्रयास हवन सामग्री का सा काम कर रहे है ताकि हिन्दी की ज्योति जलती रहे।
प्रश्न--अनिता जी आपकी कोई ऐसी तम्मना जो अभी तक पूरी न हुई हो?
उत्तर--वैसे तो इंसानी फितरत है, और और पाने की चाहना रखना। यह चाहना ही हमें जिलाए रखती है, जीने का मकसद बनती है। वरना ज़िदगी बेरंग हो जाये। लेखन एक निरंतर होने वाली प्रक्रिया है और सोच उसकी प्रक्रिया कि छाया। जैसे साहित्य की बात करें तो अभी कविता, हाइकु, गजल, लेख, साक्षात्कार, लघुकथा सभी विधा पर लिखा है और प्रकाशित भी होता रहा है। बस अब कहानी-लेखन पर काम कर रही हूँ। मन के अथाह समुन्द्र में तूफानी लहरें एक खास रूप-रेखा बनाना ही चाहती है...इंतज़ार है तो बस एक हाई टाइड का जब चाँद पूरे शबाब पर हो और मेरे शब्द और सोच कहानी के आसमान को छू लें।
प्रश्न--अन्त में आप हमारे पाठकों के लिए क्या कहना चाहेंगी?
उत्तर--किसी भी रचनाकार के लिए पाठक मार्गदर्शक या गुरु का सा ही काम करते हैं। जब वे हमें हमारे लेखन के लिए एक छोटे बच्चे सा सराहते है तो रचनाकार को बेहद खुशी होती है, लेखन सार्थक महसूस होता है। पर व्यक्तिगत तौर पर मैं आलोचना और पाठकों की प्रतिक्रियाओं का ज्यादा स्वागत करती हूँ। क्योंकि आलोचना असंतुष्टि के क्रम को आगे बढ़ा कर लेखन को तराशने में मददगार साबित होती है। रचनाकार पाठकों के बलबूते पर ही निरंतरता पाता है। उसका लेखन गतिशील होता है।
साक्षात्कारकर्ता--- डॉ.प्रीत अरोड़ा
                 


3 comments:

  1. आपके द्वारा लिए और प्रकाशित हिंदी जगत के ख्यातनाम रचनाकारों के साक्षात्कार मैंने पिछले कुछ दिनों में पढ़े हैं जो हम जैसे पाठकों के लिए एक तोहफा ही हैं. आशा है आप इसे आगे भी जारी रखेंगे. विदेश में बसने के बाद भी हिंदी के लिए सोचना ही नहीं कुछ ना कुछ करते रहना डॉ अनीता कपूर जी का हिंदी और हिंदुस्तान की सेवा करना ही है, जिसके लिए वो बधाई की पात्र हैं. डॉ. प्रीत जी ये साक्षात्कार आपकी रचनाओं से कम महत्वपूर्ण नहीं है और आप इस हेतु प्रशंसा की हक़दार है. आपको ह्रदय से धन्यवाद्.

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  2. अनिता जी का व्यक्तित्व बहुत प्रभाव शाली है. देश के बाहर रह कर अपने देश और हिंदी के प्रति उनकी भावना उनके द्वारा संपादित हिंदी अखबार 'यादें' से सहज परिलक्षित होता है. लेखन और सम्पादन दोनों ही कार्य में सफल अनिता जी सच में प्रेरणा स्वरुप हैं. दिल्ली में उनकी पुस्तकों के अनौपचारिक विमोचन पर उनसे मिलना और उनसे उनकी रचनाएं सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. उनके व्यक्तित्व के सभी पहलू को आपने साक्षात्कार में उजागर किया है, जिनसे काफी लोग परिचित नहीं होंगे. बहुत अचछा साक्षात्कार, बधाई प्रीत जी.

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